scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड – पुरुष शरीर भी माया | Patrika Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 26th July 2025 Sharir Hi Brahmand Male Body Is Also An Illusion | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड – पुरुष शरीर भी माया

माता के गर्भ में शरीर स्थिर है, जीवात्मा चर है। महामाया कुंभकार है। शरीर के पहले पिण्डात्मक स्वरूप बनता है- बुद्बुद्, कलल से। इसी से शरीर के अंग-प्रत्यंग बनते हैं। कहने को स्त्री-पुरुष के शरीर भिन्न हैं, किन्तु मिट्टी तो वही है।

जयपुरJul 26, 2025 / 08:21 am

Gulab Kothari

सृष्टि में आकाश से वायु, तेज, जल और अन्त में पृथ्वी तत्त्व का निर्माण होता है। पृथ्वी में सभी चारों भूत सम्मिलित रहते हैं, अत: पंचमहाभूता कहलाती है। सृष्टि के पंचपर्वा स्वरूप से ही पंचमहाभूत पैदा होते हैं। इनका उद्भव क्रमश: स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी से होता है। पृथ्वी जल से उत्पन्न होती है, लक्ष्मी कहलाती है। आत्म तत्त्व के अभिव्यक्त नहीं होने से पृथ्वी की, लक्ष्मी की, जड़ संज्ञा है। यह सृष्टि का ब्रह्मसत्य रूप है। अव्यय रूप षोडशी पुरुष अमृतसत्य कहलाता है। अव्यय पुरुष है, अक्षर-क्षर प्रकृति रूप है। अव्यय-अक्षर-क्षर का एक अमृत रूप भी है, अक्षर-क्षर का मर्त्यभाव भी है। अव्यय का प्राण-वाक् ही सृष्टि है। अव्यय आत्मपुरुष है। जीवात्मा में ईश्वरात्मा तथा जीवात्मा का युग्म भाव रहता है—
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥

(ऋ. 1.164.20)

ईश्वरात्मा साक्षी भाव में रहता है, जीवात्मा फल भोक्ता रूप है। फल भोग कर्म शरीर के माध्यम से होते हैं। शरीर भी पंचमहाभूत निर्मित है जो अपरा प्रकृति का अंग है। इसी में मन और बुद्धि की प्रतिष्ठा है। शरीर-मन-बुद्धि तीनों ही अपरा प्रकृति कहलाते हैं। अहंकार इनका सारथी होता है।
शरीर को कुंभकार का घट कहा है। घट निर्माण क्रिया में- कुंभकार, मिट्टी, दण्ड, चक्र, सूत्र, भूपिण्ड, पानी ये सात उपकरण होते हैं। अक्षर तत्त्व कुंभकार है। अव्यय पुरुष भूमि (आलम्बन) है, सूत्रवायु ही सूत्र है, यजुर्वेद चक्र है। इसी वेद का मर्त्यक्षर भाग मिट्टी है। प्रजापति की ध्रुवनीति दण्ड है (ब्रह्मदण्ड)। आपोब्रह्म (पानी) सहकारी कारण है। यजु चक्र नाभि (विश्वनाभि) से बद्ध है।
कुहार और चक्र दोनों जमीन पर स्थित रहते हैं। दण्ड और सूत्र असमवायी कारण हैं, मिट्टी उपादान कारण है, पानी सहकारी कारण है। कुहार मिट्टी में पानी डालकर लौंदा बनाता है। उसे चक्र पर रख देता है। चक्र को दण्ड से तेज घुमाता है। मृत पिण्ड को हाथों से (कल्पनापूर्वक) घटरूप देता है। निर्माण होने पर सूत्र से घट को चक्र से अलग करके जमीन पर सूखने के लिए रख देता है। सूख जाने पर उसे अग्नि से पकाता है। अग्नि घट के मृत् परमाणुओं को जला देता है। परमाणुओं की संधि में स्थित पानी वाष्प बनकर उड़ जाता है। पानी के स्थान पर स्वयं अग्नि प्रतिष्ठित हो जाता है। घट का परिपाक हो जाता है।
सृष्टि निर्माण में यजुर्वेद चक्र है, जो विश्वनाभि से बद्ध है। इस चक्र पर प्रजापति क्षरवेद रूप मृत् पिण्ड रखता है, जो कि हमारा गायत्री मात्रिक वेद है। यही घट बनता है जो त्रिलोकी रूप होता है—भू, भुव:, स्व:। इसी घट को चयन यज्ञ में ऊखा कहते हैं। भूलोक घट का पैंदा, भुव:लोक उदर, स्व:लोक मुख होता है। अग्नि का वास इसमें एक संवत्सर तक रहता है।
यजुश्चक्र गोल है। ‘सर्वत: पाणिपादं तत्’ है। इसी में गति-स्थिति रूप देव सृष्टि है, हृदय में आत्मा प्रतिष्ठित रहता है। देवता प्राणघन हैं। इनका विकास सूर्य में होता है। अध्यात्म में इन्द्रियां देवता हैं। हृदय से आत्मा का प्रकाश इन्द्रियों में आता है। मन बाहर की ओर दौड़ता है, तब भीतर के प्रजापति को कैसे पकड़ सकता है। सारांश यह है कि महामाया से आवरित ईश्वररूप यजुर्ब्रह्म भी ईश्वर की तरह व्यापक ही है। वही अश्वत्थ है। इसका एक भाग स्थिर है, दूसरा भाग चर है।
माता के गर्भ में शरीर स्थिर है, जीवात्मा चर है। महामाया कुंभकार है। शरीर के पहले पिण्डात्मक स्वरूप बनता है- बुद्बुद्, कलल से। इसी से शरीर के अंग-प्रत्यंग बनते हैं। कहने को स्त्री-पुरुष के शरीर भिन्न हैं, किन्तु मिट्टी तो वही है। शरीर दोनों के ही अपरा प्रकृति हैं। मन-बुद्धि भी अपरा रूप स्त्रैण ही हैं। तब पुरुष कहां है? कहीं नहीं है। केवल आत्मा पुरुष है जो दोनों में समान रूप से प्रतिष्ठित है। शेष सभी कुछ माया है—स्त्रैण है। सभी त्रिगुण से आवरित हैं। मिट्टी एक, कुहार एक, खिलौने अलग-अलग। अब यदि पुरुष कहे कि मैं अलग हूं, स्त्री कहे कि मैं अलग, तो इसका क्या अर्थ रह जाएगा? तत्त्वरूप में तो दोनों कुछ नहीं है। मिट्टी के खिलौनों का नाम स्त्री-पुरुष है। इनका निर्माण ब्रह्म विवर्त के लिए स्वयं माया ही करती है। विवर्त के बाद माया ही ध्वस्त कर देती है।
पंचभूत रूप में मिट्टी एक है। कर्मफलों के अनुसार शरीर 84 लाख बनते हैं। हर योनि में युगल तत्त्व। जो घड़ा फूट गया, वह दूसरा नहीं बनेगा। ब्रह्म भी लौटकर पुराने घड़े में नहीं आएगा। घड़ों के निर्माण में ब्रह्म की कोई भूमिका नहीं रहती। सूक्ष्म शरीर ही ईश्वर संस्था का कार्य करता है। प्रारब्ध कर्मों का भोग पूरा हो जाने के बाद स्थूल शरीर की भूमिका भी समाप्त हो जाती है। स्त्री शरीर कभी भी विदा हो, किन्तु पुरुष शरीर में ब्रह्म का जीवांश रहता है। उसी के साथ स्त्री के भी मूल प्राण रहते हैं। दोनों के मूल प्राण एक साथ शरीर छोड़ते हैं—सूक्ष्म शरीर रूप में। स्त्री का आत्मा भी अपने इस ब्रह्म से जुड़ा रहता है।
कर्मों के अनुरूप नई योनि में जीवात्मा चला जाता है। हमारा दापत्य भाव सात जन्मों तक चलता है। तब जाकर सारे पितर एक-एक करके मुक्त हो जाते हैं। प्रकृति स्त्री-पुरुष को अलग-अलग परिवारों में पैदा करती है। माता-पिता के भी तो ऋणानुबन्ध होते हैं। प्रकृति ही दोनों को पुन: एक करती है, नए शरीरों में। माटी नहीं बदलती। ईश्वरसाक्षी भाव में देखता रहता है।
स्त्री-पुरुष की सृष्टि होने के बाद ईश्वर ब्रह्मांश रूप में (बीज रूप में) अन्न के माध्यम से पुरुष शरीर में व्याप्त हो जाता है। पुरुष शरीर 16 वर्ष की उम्र तक परिपक्व होता है। स्त्री शरीर लगभग 12-13 वर्ष की आयु में पूर्णता प्राप्त कर लेता है। स्त्री शरीर भीतर अग्नि है, जल्दी परिपाक कर देता है। स्त्री की कम उम्र में शादी कर देने का कारण यही रहा है। आप देखें- आज अपराध क्यों बढ़ गया? विवाह-पूर्व यौनाचार कहां पहुंच गया!
ब्रह्म विवर्त के लिए दापत्य भाव की अनुशंसा की गई। स्त्री की अपूर्णता (बीज का भाव) भी इस परंपरा में समा गई। पुरुष शरीर से ब्रह्म का स्थानान्तरण कर दिया जाता है, स्त्री शरीर में। जहां मां अपनी माटी से ही संतान के शरीर का निर्माण करती है। पुरुष बने ब्रह्म को यात्रा मार्ग दिया स्त्री शरीर तक पहुंचने के लिए। स्त्री ने ब्रह्म के आवरण रूप शरीर का निर्माण कर दिया। नए शरीर में ब्रह्म बाहर आ गया- अगली पीढ़ी बनकर। भीतर अब कोई नहीं- न पुरुष के भीतर, न ही स्त्री के भीतर। ब्रह्म चला गया आगे। अब दोनों घड़े फूट भी जाएं तो कोई हानि नहीं। ये घड़े तो ब्रह्म को नया रूप देने के लिए प्रकृति ने बनाए थे। पहले भी वहां कुछ नहीं था। अब दोनों चले गए। कुछ नहीं बचा। न हम थे, न हम रहेंगे।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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