राजस्थान में अनुमानित करीब 8,000 स्कूल जर्जर हालत में हैं। ओडिशा में करीब 12 हजार, पश्चिम बंगाल में करीब 4000, गुजरात में करीब 3000 तथा आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश व उत्तराखंड में प्रत्येक में करीब 2500 सरकारी स्कूल जीर्ण-शीर्ण भवनों में चल रहे हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि लाखों बच्चे ऐसे स्कूलों में पढऩे को विवश हैं, जहां न तो पर्याप्त बेंच हैं, न पीने का साफ पानी, न ही शौचालय और चारदीवारी जैसी बुनियादी सुविधाएं। बारिश के मौसम में छतों का टपकना और दीवारों में सीलन आना एक आम बात है, जो कभी भी राजस्थान जैसी बड़ी दुर्घटना का रूप ले सकती है। सरकारी स्कूलों के इस दयनीय स्थिति में पहुंचने के पीछे कोई एक कारण नहीं, बल्कि कई जटिल और आपस में जुड़े हुए कारक जिम्मेदार हैं- स्कूलों के रखरखाव और मरम्मत के लिए बजट का आवंटन अक्सर अपर्याप्त होता है। शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का एक निश्चित हिस्सा खर्च करने की सिफारिशों के बावजूद, वास्तविक आवंटन कम रहता है। जो बजट आवंटित होता भी है, वह नौकरशाही की लालफीताशाही और देरी के कारण समय पर स्कूलों तक नहीं पहुंच पाता। सरकारों का ध्यान अक्सर नए स्कूल खोलने जैसी राजनीतिक रूप से आकर्षक योजनाओं पर अधिक होता है, जबकि मौजूदा हजारों स्कूलों के रखरखाव को नजरअंदाज कर दिया जाता है। मरम्मत और निर्माण के लिए आवंटित धन में भ्रष्टाचार एक दीमक की तरह है, जो पूरे तंत्र को खोखला कर रहा है। घटिया सामग्री का उपयोग और अधूरे काम के कारण समस्या जस की तस बनी रहती है।
स्कूल भवनों की सुरक्षा और रखरखाव के लिए जिम्मेदार अधिकारियों और ठेकेदारों की कोई स्पष्ट जवाबदेही तय नहीं होती। हादसे होने के बाद जांच समितियां बनती हैं, लेकिन निवारक उपायों, यानी नियमित निरीक्षण और निगरानी पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। विशेषकर दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में निगरानी तंत्र लगभग न के बराबर है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 स्कूलों के बेहतर बुनियादी ढांचे पर जोर तो देती है, लेकिन यह एक नीतिगत ढांचा है, न कि बजटीय प्रावधान। जब तक केंद्र और राज्य सरकारें वार्षिक बजट में इन नीतियों को लागू करने के लिए ठोस वित्तीय आवंटन और एक मजबूत कार्यान्वयन योजना नहीं बनातीं, तब तक ये नीतियां कागजों तक ही सीमित रहेंगी। इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए 2015 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक और दूरदर्शी फैसला सुनाया था। न्यायालय ने आदेश दिया कि उत्तर प्रदेश के सभी सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों, जनप्रतिनिधियों और न्यायपालिका से जुड़े लोगों के लिए अपने बच्चों को सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य किया जाए। इस आदेश का तर्क सीधा और शक्तिशाली था- जब प्रभावशाली और निर्णय लेने वाले लोगों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ेंगे, तो वे स्कूलों की स्थिति सुधारने के लिए व्यक्तिगत रूप से प्रेरित होंगे और व्यवस्था पर दबाव डालेंगे। हालांकि, मजबूत इच्छाशक्ति की कमी के कारण यह आदेश धरातल पर नहीं उतर पाया। यह इस बात का उदाहरण है कि केवल न्यायिक आदेश ही पर्याप्त नहीं होता, प्रभावी कार्यान्वयन के लिए प्रशासनिक सहयोग और अटूट राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है।
देश में सरकारी स्कूलों का संकट केवल कुछ इमारतों के गिरने का नहीं, बल्कि यह व्यवस्थागत उदासीनता, भ्रष्टाचार और जवाबदेही की कमी का संकट है। यह हमारे देश के भविष्य, यानी हमारे बच्चों की सुरक्षा और उनके शिक्षा के अधिकार से सीधे तौर पर जुड़ा है। इस गंभीर स्थिति से निपटने के लिए इन ठोस कदमों की तत्काल आवश्यकता है- स्कूलों के रखरखाव के लिए एक अलग, पर्याप्त और गैर-व्यपगत (नॉन लैप्सेबल) बजट का प्रावधान किया जाना चाहिए, जिसके खर्च का पूरा हिसाब ऑनलाइन उपलब्ध हो। हर स्कूल भवन का एक स्वतंत्र एजेंसी द्वारा हर दो साल में अनिवार्य सुरक्षा ऑडिट कराया जाना चाहिए और उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी चाहिए। स्कूल के बुनियादी ढांचे के लिए जिम्मेदार अधिकारियों (जैसे खंड शिक्षा अधिकारी, जिला शिक्षा अधिकारी) और ठेकेदारों की जवाबदेही तय की जाए। लापरवाही के मामलों में सख्त दंडात्मक कार्रवाई हो। स्कूल प्रबंधन समितियों को अधिक वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार दिए जाएं ताकि वे स्थानीय स्तर पर छोटी-मोटी मरम्मत का काम तुरंत करा सकें। इलाहाबाद उच्च न्यायालय जैसे प्रगतिशील आदेशों को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा। जब तक नीति-निर्माताओं के बच्चे इन स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक वास्तविक सुधार की उम्मीद करना कठिन है। अंतत:, जब तक हम स्कूलों को केवल ईंट-गारे की इमारत न समझकर, उन्हें राष्ट्र-निर्माण की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई नहीं मानेंगे, तब तक ऐसी दुखद घटनाओं की आशंका बनी रहेगी और हम अपने बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे।