अब समय है मानसिक पूंजी में निवेश का
डॉ. हिमांगिनी राठौड़ हूजा


जब भारत पाक तनाव की वजह से सीमावर्ती क्षेत्रों में स्थितियां विकट रहीं तो सरकारी मशीनरी और प्रशासनिक तंत्र ने अभूतपूर्व तत्परता और साहस का परिचय दिया। परंतु यह भी स्पष्ट था कि परिस्थितियां जितनी भौतिक तैयारी की मांग कर रही थीं, उतनी ही मानसिक दृढ़ता और अनुकूलन क्षमता की भी आवश्यकता थी। ऐसी असमंजसपूर्ण, जोखिमपूर्ण और तनावपूर्ण परिस्थितियों में जो चीज व्यक्ति को टिकाए रखती है, वह है मानसिक पूंजी यानी साइकोलॉजिकल कैपिटल।
मानसिक पूंजी एक वैज्ञानिक रूप से विकसित की गई अवधारणा/ संकल्पना है, जिसे विख्यात मनोवैज्ञानिकों ने विकसित किया है और जिसका प्रयोग अमरीका, यूके, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और कनाडा जैसे देशों में कार्यस्थल उत्पादकता, लचीलापन और नेतृत्व क्षमता को बढ़ाने के लिए किया जा चुका है। यह कोई सैद्धांतिक विचार मात्र नहीं है, बल्कि अनुसंधान आधारित व्यावहारिक मॉडल है, जिसे संगठनों और सार्वजनिक सेवा प्रणालियों में व्यवस्थित रूप से लागू किया गया है।
यह व्यक्ति की आशावादिता, आत्म-प्रभावकारिता, आशा, और लचीलापन जैसे गुणों का समुच्चय है। यह वह आंतरिक संसाधन है जो न केवल संकटों से जूझने की शक्ति देता है, बल्कि ऐसे समय में निर्णय क्षमता, भावनात्मक स्थिरता और व्यावहारिक अनुकूलन को भी सशक्त करता है।
आज हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहां अनिश्चितता एक स्थायी भाव बन चुकी है। चाहे वह महामारी का काल हो, सीमाओं पर तनाव हो या तेजी से बदलती तकनीकी दुनिया-हर दिशा से चुनौती का सामना है। विशेषकर सार्वजनिक सेवा, रक्षा, और आपदा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्तियों को, तीव्र प्रतिक्रिया, संयमित सोच और भावनात्मक प्रबंधन की आवश्यकता होती है। परंतु क्या हमारी तैयारी केवल प्रशिक्षण, उपकरण और प्रशासनिक प्रक्रियाओं तक सीमित होनी चाहिए? नहीं। मानसिक पूंजी को तैयार करना और सुदृढ़ करना अब एक रणनीतिक आवश्यकता बन चुका है।
भारत-पाक तनाव के दौरान यह देखा गया कि स्थिति भले ही नियंत्रण में रही, लेकिन भावनात्मक और मानसिक स्तर पर कई कर्मी अत्यधिक तनाव, असमंजस और भय से ग्रसित थे। यह केवल एक उदाहरण नहीं है-यह एक संकेत है कि हमें अब व्यक्ति की आंतरिक क्षमता निर्माण की दिशा में गंभीर रूप से सोचना होगा। मानसिक पूंजी वह आधार है जिस पर एक व्यक्ति अपने विचारों, भावनाओं और कार्यों को स्थिर रखता है और परिस्थिति के अनुसार उन्हें अनुकूल करता है। यही क्षमताएं व्यक्ति को न केवल जीवित, बल्कि प्रभावी बनाए रखती हैं।
शोध और व्यावहारिक अनुभव यह बताते हैं कि जिन लोगों में मानसिक पूंजी का स्तर उच्च होता है, वे न केवल बेहतर निर्णय लेते हैं, बल्कि विफलताओं से जल्दी उबरते हैं, सहयोगात्मक होते हैं और नेतृत्व की स्थिति में भी अधिक दक्षता दिखाते हैं। यह केवल सिद्धांत नहीं है-इसका व्यावहारिक प्रभाव कार्यक्षमता, नीति क्रियान्वयन और सार्वजनिक संतुष्टि पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
समस्या यह है कि हम अब भी मानसिक स्वास्थ्य और मानसिक पूंजी को व्यक्तिगत विषय मानते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि ये सार्वजनिक सेवा की गुणवत्ता और सुरक्षा व्यवस्था की स्थिरता के लिए उतने ही आवश्यक हैं जितने संसाधन और संरचनाएं।
इसका समाधान है कि प्रशिक्षण और क्षमता विकास कार्यक्रमों में मानसिक पूंजी से संबंधित मॉड्यूल को शामिल किया जाए-विशेषकर पुलिस, प्रशासन, शिक्षक, डॉक्टर और आपदा प्रबंधन कर्मियों के लिए। नैतिक और मनोवैज्ञानिक नेतृत्व को बढ़ावा दिया जाए, ताकि संगठनात्मक संस्कृति लचीलापन और आशावाद को प्रोत्साहित करे।
कार्यस्थल पर मन:स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जाए और निवारक उपायों को अपनाया जाए। राज्य सरकार, शिक्षा संस्थान और प्रशासनिक प्रशिक्षण केंद्र मिलकर इस दिशा में प्रभावी पहल कर सकते हैं। मनोवैज्ञानिक पूंजी पर केंद्रित कार्यक्रम केवल मानसिक स्वास्थ्य सुधार नहीं करते, बल्कि कर्मचारियों की उत्पादकता, नवाचार क्षमता और सेवा-भावना को भी मजबूत बनाते हैं।
यह ध्यान रखना होगा कि मानसिक पूंजी कोई जादुई औषधि नहीं है-यह समय, अभ्यास और संगठनात्मक समर्थन से विकसित होती है। परंतु यदि हम इसे सुदृढ़ करने की दिशा में अभी कदम नहीं उठाते, तो अगली बार जब कोई संकट दस्तक देगा, हमारी तैयारियां अधूरी रहेंगी। समय आ गया है कि हम मानसिक पूंजी को सिर्फ एक वैकल्पिक विचार नहीं, बल्कि लोक सेवा की रीढ़ के रूप में स्वीकारें।
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