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सम्पादकीय : राजनीतिक दल ही करें बयानवीरों की सफाई

मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की ओर से मंत्री पर एफआइआर के निर्देश के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई करते हुए गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने मौखिक रूप से टिप्पणी भी की है कि मंत्री द्वारा बोले गए हर वाक्य में जिम्मेदारी होनी चाहिए।

जयपुरMay 15, 2025 / 07:55 pm

harish Parashar

पहले बिना सोचे-समझे बयानबाजी करना और विवाद खड़ा होने लगे तो माफीनामा पेश करना, हमारे नेताओं का शगल हो गया है। हैरत इस बात की है कि समय-समय पर अदालतों की फटकार का भी इन पर असर नहीं होता। ताजा मामला मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह और सपा नेता रामगोपाल यादव का है। दोनों ने अलग-अलग मौकों पर भारतीय सेना के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का चेहरा बनीं कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह को लेकर विवादास्पद टिप्पणियां कीं।
विजय शाह को तो सुप्रीम कोर्ट ने वही नसीहत दी जो जिम्मेदार पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति को दी जानी चाहिए। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की ओर से मंत्री पर एफआइआर के निर्देश के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई करते हुए गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने मौखिक रूप से टिप्पणी भी की है कि मंत्री द्वारा बोले गए हर वाक्य में जिम्मेदारी होनी चाहिए। मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह ने कर्नल सोफिया कुरैशी का जिक्र करते हुए एक संबोधन में जो कुछ कहा वह सार्वजनिक है। इसके लिए मध्यप्रदेश हाईकोर्ट से उन्हें फटकार भी मिली है। आलोचना के घेरे में आने पर वे अब माफी मांगने के साथ यह भी सफाई दे रहे हैं कि मीडिया ने बयान को संदर्भ से बाहर ले लिया है। वहीं दूसरी ओर मुरादाबाद में सपा नेता रामगोपाल यादव तो विंग कमांडर व्योमिका सिंह पर जातिगत टिप्पणी करने से भी नहीं चूके। जाहिर है कि राजनेताओं के बड़बोले बयानों की यह ‘बीमारी’ किसी एक राजनीतिक दल से भी जुड़ी नहीं है। जिसे जहां दांव लगता है सुर्खियों में आने के लिए बेसिर-पैर के बयानों की बौछार शुरू कर देता है। ज्यादा बवाल होने पर राजनीतिक दल उन पर निलंबन व निष्कासन की कार्रवाई कर देते हैं। इस बात पर विचार शायद ही किसी दल में होता हो कि आखिर ऐसे लोगों को जनप्रतिनिधि बनने का मौका ही क्यों दिया जाता है। जाहिर है इनका चुनाव जनता करती है। लेकिन जनता भी उन्हें ही चुनती है जिनको राजनीतिक दल उम्मीदवार बनाते हैं। सिर्फ जिताऊ उम्मीदवार ही राजनीतिक दलों की प्राथमिकता रहने लगे हैं। न तो ऐसे लोगों की पृष्ठभूमि की परवाह की जाती और न ही उनके आचार-विचार की पड़ताल की जाती।
तमाम जनप्रतिनिधियों पर ही यह बात लागू होती है कि वे जो भी बोलें, सोच-समझकर बोलेंं। अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देने वालों से यह सवाल जरूरी है कि जनमानस उद्वेलित करने वाले बयान स्वीकार ही क्यों होने चाहिए? राजनीतिक दल भी ऐसे लोगों की अपने स्तर पर सफाई करने लगेंगे तो बयानवीरों की फौज स्वत: ही खत्म होने लगेगी।

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