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परिवार अंग्रेजियत की ओर : हम बने बनाए परिवार को बच्चों के नाम पर तोड़ देना चाहते हैं

पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।

जयपुरMay 15, 2025 / 03:58 pm

harish Parashar

हम यदि कुछ भी हैं तो उसका केन्द्र परिवार ही है। लेकिन हमारे परिवार धीरे-धीरे छिन्न-भिन्न होने के कगार पर पहुंच रहे हैं तो इसकी बड़ी वजह हमारी शिक्षा प्रणाली है जिसके माध्यम से हमारे परिवार तेजी से अंग्रेजियत की ओर जा रहे हैं। बिखरते परिवारों पर चिंता करते हुए कुलिश जी ने तीस बरस पहले ही लिख दिया था कि हम एक विशाल ताने-बाने के अंग हैं और परिवार ही इस ताने-बाने के तंतु है। एक तंतु भी टूटता है तो ताना-बाना बिखरता है। आज अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस पर इस आलेख के अंश-
पिछले कुछ सालों में परिवार के भीतर एक छोटा परिवार अलग से बनना शुरू हुआ है। इसके साथ ही हमारे परिवार में व्याप्त जो समष्टि भाव निहित है वह खण्डित होना शुरू हो गया। हमारे परिवार में जो त्रिकालबाधित जीवन की निरंतरता निहित थी उसका इसने क्षय करना शुरू कर दिया। इसकी बड़ी वजह हमारी शिक्षा प्रणाली भी है जिसके माध्यम से हमारे परिवार बड़ी तेजी से अंग्रेजियत की ओर जा रहे हैं अर्थात छिन्न-भिन्न होने के कगार पर पहुंच रहे हैं। दूसरों के सुख-दु:ख में शामिल होना, परिवार-प्रथा का मुख्य कर्म है। और, नई शिक्षा प्रणाली ने यह समष्टि भाव हमारे परिवारों से मिटा दिया। परिवारों की सीमा और परिभाषा भी बदल गई। जो बिखराव परिवार-व्यवस्था में यूरोप-अमरीका में आ गया है वही हमारे यहां हो रहा है। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश कहते हैं कि हमें परिवार की ओर लौटना होगा, परन्तु हम बने-बनाए परिवार को तोड़ देने पर तुले हुए है और वह भी बच्चों के नाम पर। बच्चों का हित सभी चाहते हैं। बूढ़ा हमारा अतीत है तो बच्चा भविष्य है, हम यदि कुछ भी हैं तो उसका केन्द्र परिवार है। परिवार मानव सृष्टि और समाज व्यवस्था की मूल इकाई है। इसके माध्यम से हम विश्व के कण-कण से जुड़े हुए होते हैं। हम एक विशाल ताने-बाने के अंग है और परिवार ही इस ताने-बाने के तन्तु है। एक तन्तु भी टूटता है तो ताना-बाना बिखरता है। इस तन्तु का विशद रूप हमारे परिवार के माध्यम से देखा जा सकता है। जहां परिवार का रूप मां-बाप और बच्चे ही नहीं है। दादा-दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, काका-काकी, भाई-भाभी, बहन-बहनोई, मौसी-मौसा,बुुआ-फूफा और न जाने कितने ही रिश्ते जो एक के बाद एक आगे बढ़ते जाते हैं। काल गति से ये पुराने पड़ते जाते हैं और नए बनते जाते हैं। सभी की दूरी और नजदीकी तय है परन्तु रिश्ते हैं। हमारे ये रिश्ते आसपास के पेड़-पत्ता और पशु-पक्षियों, कीट पतंगों, जन्तुओं तक बंधे हुए हैं। आज तो पारिवारिक रिश्ते भी मां-बाप के बाद सिर्फ अंकल और आंटी रह गए। इनमें सभी रिश्ते समा गए। मम्मी, पापा, अंकल, आंटी और बस! इसके बाहर एक और रिश्ता देखा गया है जो हमारा पालतू ‘डॉगी’ परन्तु वह मानव-परिवार का रिश्ता नहीं है और अभी उसके लिए स्कूल भी नहीं खुले।
(12 अप्रेल 1995 के अंक में ‘मम्मी, मम्मा, मामा, माम् ओर ‘लेडिज’ आलेख से)
अमरीका में संयुक्त परिवार असंभव

अमरीका में परिवार के नाम पर केवल पति, पत्नी और बच्चे माने जाते हैं। एक परिवार में तीन पीढ़ी एक साथ नहीं रहती। ऐसे तो उदाहरण हैं कि पत्नी की माता उनके पास रहने आ जाएं, लेकिन इस तरह के मामलों में पारिवारिक संबंध प्रमुख नहीं होकर आर्थिक स्वार्थ अधिक देखने में आता है। माता, यदि परित्यक्ता है या विधवा है तो वृद्धावस्था में अपने पुत्र के बजाय पुत्री के पास रहना ही ठीक समझेगी और पुत्री उसकी वसीयत को दृष्टि में रखकर अपने पति को भी राजी कर लेगी। परिवार में दादा-दादी को वैसे कोई स्थान नहीं है। लडक़े-लड़कियों के घर बसाते ही वे उनके लिए मेहमान हो जाते हैं। समय-समय पर वे एक-दूसरे के यहां जाकर खैर-खबर ले लेते हैं और कुछ समय बिता लेते हैं। आर्थिक परिवर्तनों ने संयुक्त परिवार प्रथा को असंभव बना दिया है।
कुलिश जी की अमरीका यात्रा वृत्तांत पर आधारित पुस्तक ‘अमरीका एक विहंगम दृष्टि’ से
परिवार की धुरी

इस देश की रचना में ऐसे कौनसे तत्व हैं जिनके कारण इसका जीवट क्षीण होने के बावजूद समाप्त नहीं होता। संसार में कितने ही साम्राज्य एवं कितनी ही सभ्यताएं समाप्त हो गईं। पर देश की सांस्कृतिक जीवनधारा निरंतर प्रवाहित रही। अखण्ड रही। भारतीय परिवार व्यवस्था पर एक बात कही जा सकती है। इस परिवार की रचना इस तरह की है कि वह भारत की एक लघु रचना है। एक भी परिवार बचा रहा तो समझिए कि भारत बचा हुआ है। परिवार की धुरी स्त्री को माना है, जो इस देश का एक बड़ा शक्ति स्तंभ है। (‘कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से)

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