जूमर्स यानी कि जनरेशन ज़ेड ही नहीं, अपितु आज हर व्यक्ति जिसकी पहुंच एंड्रॉयड तक है, वह डूमस्क्रोलिंग का सहज शिकार हो रहा है। इंटरनेट की मायावी दुनिया की एक खास बात यह है कि आपने एक बार जिसे खोजा या देखा, तो उसके बाद उससे संबंधित सामग्री की बाढ़ ही आ जाती है। जैसे ही आप साइट पर जाएंगे, तो चाहे फेसबुक हो, चाहे इंस्टाग्राम या अन्य कोई स्रोत, आपके सामने उससे संबंधित सामग्री का ढेर लग जाएगा। समस्या यह हो जाती है कि इसमें से कितनी सामग्री खरी है और कितनी भ्रामक – यह अंतर करना भी मुश्किल हो जाता है। कोरोना त्रासदी में जहां देखो वहीं नकारात्मक और भ्रामक सामग्री ही अधिक देखने को मिलती थी। ऐसे में उसके बाद ब्राउज़िंग करते ही इस तरह की सामग्री ही पहली प्राथमिकता में सामने आती है, भले ही इस तरह की सामग्री से कितनी ही तौबा करने की सोचें। यह अपने आप में एक त्रासदी है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि डिजिटल क्रांति ने समूची दुनिया को ‘विश्व ग्राम’ में परिवर्तित कर दिया है। जानकारियों का अथाह भंडार सहज उपलब्ध करा दिया है। हालांकि यह दूसरी बात है कि जानकारियों के इस भंडार में वह गहराई नहीं है, जो होनी चाहिए। बल्कि इससे यह हुआ कि आज की और खासतौर से जेन ज़ेड पीढ़ी पूरी तरह इस पर निर्भर हो गई है। पढ़ना-पढ़ाना दूर होता जा रहा है। कोई भी जानकारी चाहिए तो गूगल गुरु और इनके भाई-बंधुओं का सहारा ले लेते हैं, भले ही वह जानकारी सत्य के कितने निकट है, यह परखने या जांचने का हमारे पास समय ही नहीं होता। यही कारण है कि भ्रामक वायरल खबरों का अंबार लगा होता है। सोशल मीडिया पर यहां तक होने लगा है कि वर्षों पहले घटित घटना आज की बनकर सामने आ जाती है और पता ही नहीं चलता।
पिछले दिनों नॉर्वे के पब्लिक हेल्थ इंस्टीट्यूट द्वारा किए गए सर्वे में यह उभरकर आया कि रात को सोने के समय भी मोबाइल की लत के कारण जैसे ही उस पर उंगलियां घुमाते हैं, तो इसी तरह की भ्रामक, नकारात्मक सामग्री से दो-चार होना पड़ता है और इसका परिणाम यह है कि 59 फीसदी युवा नींद संबंधी बीमारी से जूझने लगे हैं। हमारे देश में भी नकारात्मक खबरों और सोशल मीडिया सामग्री को देर रात तक देखने की आदत जूमर्स में आम हो गई है। 2025 की स्टेट ऑफ इमोशनल वेलबीइंग अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार केवल तीन प्रतिशत भारतीयों के तकनीक यानी कि डिजिटल तकनीक के साथ सकारात्मक संबंध हैं। देर रात मीडिया ब्राउज़िंग में 2022 की तुलना में ही 2025 आते-आते 57 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई है। रात को किसी भी कारण से उठने पर सबसे पहले हाथ मोबाइल पर जाता है और उस पर कुछ खोजने का प्रयास होता है। अब यह कहने की आवश्यकता नहीं कि खोजा यह जाता है कि सोशल मीडिया पर क्या नया है, और यह नया देखने में ही आपकी मानसिकता अनुसार सामग्री उस पर मिलती है, जो आपकी रात की नींद खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ती।
परिणाम साफ है-नींद पूरी नहीं होने के कारण होने वाली बीमारियों के साथ ही दूसरी बीमारियों को भी हम बिना बुलाए बुला लेते हैं। नींद पूरी नहीं होने और दिल-दिमाग को प्रभावित करने वाली नकारात्मक सामग्री से दो-चार होने के कारण कुंठा, संत्रास, डिप्रेशन, अनिद्रा, घबराहट, बेचैनी, असुरक्षा, अवसाद, ब्लड प्रेशर, डायबिटीज और दिल की बीमारी तक को न चाहते हुए भी आमंत्रित कर लेते हैं।
समस्या की गंभीरता को देखते हुए जीवन शैली में बदलाव लाना जरूरी हो जाता है। जीवन को आसान बनाने वाले साधनों को हमें साधन के रूप में ही लेना होगा। अत्यधिक और नकारात्मक उपयोग हम पर ही भारी पड़ता है। फ़ैक्ट-चेक जैसी व्यवस्था सिस्टम में होनी चाहिए और नकारात्मक व भ्रामक वायरल सामग्री को किसी न किसी तरह से निरुत्साहित किया जाना चाहिए। हमें ऐसी आदत भी बनानी होगी जिसमें रात को मोबाइल जितना दूर हो सके उतना ही दूर रखा जाए। पढ़ने-पढ़ाने की आदत तो बनानी ही होगी, वहीं कहीं न कहीं उथली जानकारी की जगह ठोस अध्ययन की आदत युवाओं में डालनी होगी।
सोशल मीडिया के स्थान पर परंपरागत सामाजिकता को स्थान देना ही होगा। गली-मोहल्लों और चौराहों को जीवंत करना होगा ताकि अपनत्व, संवेदनशीलता और सामाजिकता को बढ़ावा दिया जा सके। समस्या खासतौर से जूमर्स को लेकर अधिक है क्योंकि यह पीढ़ी अधिक प्रभावित हो रही है। नई पीढ़ी को भी इन हालातों से बचाना होगा। कई देश इसका समाधान खोजने आगे आ रहे हैं। सबसे सार्थक प्रयास तो अपनी आदत बदलने और रात के समय जहां तक संभव हो, स्क्रोलिंग से दूर रहना ही होगा।