क्यों चुप रह जाना कई बार सबसे बड़ी भूल बन जाती है?


कभी-कभी जो सबसे ज्यादा बोलते हैं, वे झूठ को सच बना देते हैं और जो सच में आहत होते हैं, वे चुप रहकर खुद को ही दोषी साबित कर बैठते हैं। यही चुप्पी कई बार सबसे बड़ी भूल बन जाती है। दुर्भाग्यवश, हम जो सुनते और देखते हैं, उसी को सच मान लेते हैं। परिणामस्वरूप, हम अधूरी कहानियों पर पूरी राय बना लेते हैं, यहीं से आरंभ होता है एक सामाजिक भ्रम।
एक पारिवारिक संदर्भ से समझें जिसमें एक उदाहरण एक बुजुर्ग दंपति का है, जो समाज में खुद को पीडि़त दर्शाते थे। इससे लोगों की सहानुभूति उनके साथ हो गई। बेटों की आलोचना होने लगी और बहुओं के संस्कारों पर सवाल उठने लगे। वर्षों बाद जब उनकी बेटी ने सच्चाई बताई कि उसके माता-पिता भाइयों की निजी जिंदगी में हस्तक्षेप करते थे। इस तरह कार्यालयों में भी कई बार एक सहकर्मी खुद को शोषित दिखाकर सहानुभूति अर्जित करता है। लेकिन जब सच्चाई सामने आती है कि तब लोगों को यह मानने में समय लगता है कि जिसे अब तक पीड़ित माना गया, वह वास्तव में उत्पीडक़ था।
अक्सर लोग कहते हैं कि ईश्वर सब देख रहा है या वक्त जवाब देगा और इसी आशा में वे चुप रहते हैं। मगर जब आप चुप रहते हैं, तो लोग उसे स्वीकृति या अपराध की स्वीकृति समझने लगते हैं। यह चुप्पी आपकी गरिमा को कुचल सकती है, आपकी बातों को खो सकती है। यह बात न्याय व्यवस्था पर भी लागू होती है-अदालतों में भी वही सच माना जाता है, जो साबित होता है। कई बार निर्दोष व्यक्ति भी तब तक दोषी माना जाता है, जब तक वह खुद को सिद्ध न कर दे और एक बार छवि बिगड़ जाए, तो समाज उस छवि को ठीक करने में वर्षों लगा देता है। समाजशास्त्र कहता है कि समाज में ‘फस्र्ट इम्प्रेशन’की भूमिका बहुत अहम होती है। जो व्यक्ति पहले अपनी पीड़ा या पक्ष प्रस्तुत करता है, वही सहानुभूति पाता है। इसके पीछे ‘भीड़ मानस’ काम करता है-लोग बिना गहराई में गए बहाव में बह जाते हैं।
मनोविज्ञान के अनुसार, जो लोग बार-बार खुद को पीडि़त दिखाते हैं, वे पीडि़त मानसिकता का शिकार हो जाते हैं। वे हर परिस्थिति में खुद को निर्दोष मानते हैं और दोष दूसरों पर डालते हैं। यह एक प्रकार की सहानुभूति की राजनीति है, जो लंबे समय में भ्रम फैलाती है। जो दिखता है, वह सच हो सकता है लेकिन जो नहीं दिखता, वह झूठ नहीं होता। जरूरी है कि हम किसी के बारे में राय बनाने से पहले सभी पक्षों को सुनें। साथ ही अगर आप खुद को बार-बार गलत समझे जाने से आहत हैं तो चुप न रहें।
परिस्थितियां हमेशा इतनी अनुकूल नहीं होंगी कि कोई और आपकी सच्चाई सामने रखे। आपको ही यह साहस करना होगा। याद रखें, जब तक सच्चाई सामने नहीं आती, तब तक झूठ ही सच बना रहता है और सच बोलने वाले लोग चुप्पी की कीमत अपने आत्मसम्मान और मानसिक शांति से चुकाते रहते हैं। सच का साथ देने के लिए शोर नहीं चाहिए, बस हिम्मत चाहिए और वह हिम्मत सबसे पहले खुद के लिए जरूरी होती है।
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