साथ ऐसा… जैसे अपने ही हों
बुजुर्ग हाजी गफ्फार खान के पास चार ऊंट हैं। सुबह सूरज उगने से पहले वह उन्हें नहलाते हैं, दुलारते हैं और हाथों से चारा खिलाते हैं। वे कहते हैं-बच्चे तो शहर चले गए, पर मेरे असली सहारे यही हैं। जब मन उदास होता है, तो ये चुपचाप पास बैठते हैं… जैसे सब समझते हों।रेगिस्तान के जहाज़ नहीं… रिश्ते के मुसाफिर हैं
ऊंटों ने जैसलमेर के जीवन को ढोया है — पानी की तलाश में मीलों के सफर से लेकर बारातों, मेलों, और आज की टूरिस्ट ऊंट सफारी तक।पर्यटन में बदलती भूमिका, पर अपनापन बरकरार
आज सम, खुहड़ी, लाठी और मोहनगढ़ के ऊंटपालक युवाओं ने पारंपरिक ऊंट सफारी को पेशे में बदला है। विदेशी पर्यटक जब ऊंट पर बैठकर सूर्यास्त की रेत में डूबते हैं, तो कहते हैं – इट्स नॉट जस्ट ए राइड, इट्स ए फीलिंग…। इंसान और ऊंट की यह साझेदारी, केवल रोजग़ार नहीं, जैसलमेर की पहचान बन गई है।
संघर्ष भी हैं… संवेदनशीलता भी होनी चाहिए
बदले दौर में मशीनों ने ऊंट की उपयोगिता को कम किया है। नई पीढ़ी इस परंपरा से दूर जा रही है। कई बार पर्यटन में इनसे बोझ की तरह व्यवहार किया जाता है, पर जैसलमेर के कई ग्रामीण आज भी ऊंट को परिवार का बुजुर्ग मानते हैं — जिसकी सेवा करना गर्व की बात है।रिश्ता मिट्टी जैसा… खरा और ज़िंदा
जैसलमेर की यह साझेदारी केवल एक ऐतिहासिक झलक नहीं, बल्कि आज भी सांस्कृतिक चेतना की सजीव तस्वीर है। ऊंट और इंसान का यह संबंध संघर्ष व सेवा की भी सीख देता है।-धीरज पुरोहित, मिस्टर डेजर्ट- 2025