चातुर्मास आत्म-अवलोकन का अवसर: चातुर्मास के इस काल में आध्यात्मिक लाभ उठाने के लिए आप भी अपनी मनोभूमि तैयार कीजिए
राजस्थान पत्रिका गेस्ट राइटर: साध्वी शीतल गुणा “स्नेही”


साध्वी शीतल गुणा “स्नेही”
चातुर्मास आत्मउत्थान का पर्व है। चातुर्मास आत्म-चिंतन का पर्व है, आत्मिक आराधना और आत्म विकास के लिए दीर्घकालीन गुरु भगवंतों का संयोग रहता है। गुरु भगवंतों की निश्रा में आध्यात्मिक कर्तव्यों की ओर ध्यान दीजिए, पुरुषार्थ को कर्म निवारण की ओर मोड़ें। प्रभुदर्शन, सन्तदर्शन, प्रवचन श्रवण, सामायिक, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, धर्म आराधना, और तपश्चरण के लिए समय निकालें। धर्माचरण के प्रति स्वयं की कमजोरी को जानें और उसे दूर कर शुद्ध अरिहंत भाषित धर्माचरण की ओर आगे बढ़ें। यही वह कुंजी है जिससे हम इस जन्म और जन्मोजन्म सन्तोष रूपी आत्मिक सुख पाकर पुन: वैभवशाली जीवन, स्वर्ग और अक्षय सुख की ओर अग्रसर हो सकते हैं। चातुर्मास आत्मा की आराधना का पावन पर्व है। अंतर लोक की यात्रा का समय है चातुर्मास।
चातुर्मास आत्मशुद्धि का पर्व है। संस्कार शुद्धि का अवसर है। मनीषियों ने मन की साधना को परिपक्व एवं पुष्ट करने के लिए तन की तीन विधियां प्रतिपादित की हैं। आतप ग्रहण, शीत सहन और प्रतिसंलीनता। इन तीन विधियों के अनुष्ठान के लिए अलग-अलग ऋतुओं का विधान किया है। ग्रीष्म ऋतु आतप ग्रहण के लिए सबसे सही मानी गई है। सूर्य की ऊर्जा का पृथ्वी से सर्वाधिक संपर्क गर्मी के मौसम में होता है। शरीर के अंदर विद्यमान पृथ्वी तत्व चार माह तक यदि सूर्य की सन्निधि में रहता है तो पृथ्वी तत्व में सघनता बढ़ती जाती है। उसमें स्थायित्व गुण का विकास होता है। शीत ऋतु में जलीय तत्व प्रचुर मात्रा में प्रकृति में होता है। यह समय ही शरीर में अधिकतम जल संचयन का है। अत: साधकों को निर्देश दिया है कि वे रात्रि में एकांत में शीत सहन करें, स्वाध्याय करे।
वर्षा ऋतु, प्रतिसंलीनता नामक तप के लिए सबसे सही समय है। यों तो ग्रीष्म और शरद ऋतु के भी चार-चार महीने होते हैं। पर चातुर्मास शब्द वर्षा के चार महीनों के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। जैन शास्त्रों में इसे वर्षावास कहा है अर्थात वर्षा के समय में आवास करना है, यात्रा नहीं। इस तप में बहिर्यात्रा बंद तथा अंतर्यात्रा प्रारंभ हो जाती है। अंतर्यात्रा के प्रस्थान बिंदुओं और पड़ावों में चार तत्व मुख्य रूप से उभरते हैं। प्रथम है देह, द्वितीय है मन, तीसरा है कर्म और चौथा है आत्मा। पहले देह की गतिविधियां न्यूनतम स्तर पर लाई जाती हैं। इस तरह से कायोत्सर्ग सधता है और चेष्टा निरोध फलित होता है। इस सफलता के बाद मन की बुरी प्रवृत्तियों का निरीक्षण-परीक्षण किया जाता है। इस प्रक्रिया से मन के काषायिक स्तर का शुद्धिकरण हो जाता है, जो कि चातुर्मास की विशेष उपलब्धि होती है। इसके बाद बारी आती है कर्म शोधन की। इसके तहत पूर्व काल में बंधे कर्मों की प्रगाढ़ता को शिथिल किया जाता है। उन कर्मों की अशुभता को शुभता में परिवर्तित किया जाता है। इस तरह धीरे-धीरे आत्मा की अनंत शक्ति के अंशों को उभारा जाता है।
मन की दृढ़ता के लिए दीर्घ तपस्या का अभ्यास चाहिए। मौन और ध्यान का अभ्यास तपस्या में गुणवत्ता भर देता है। जिनकी इस दिशा में पैठ नहीं है, वे स्वाध्याय तथा सेवा द्वारा तन-मन की निर्मलता का निर्माण करते हैं। गृहस्थ वर्ग सत्संग तथा प्रार्थनाओं में स्वयं को समर्पित करके चातुर्मास सार्थक बनाते हैं। चातुर्मास एक आत्म-अवलोकन का अवसर है। बुद्धिमान वही होता है, जो अवसर को पहचान लेता है और लाभ उठाता है। चातुर्मास के इस काल में आध्यात्मिक लाभ उठाने के लिए आप भी अपनी मनोभूमि तैयार कीजिए। चिंतन, मनन, उपदेश-श्रवण तथा श्रद्धा विश्वास को जीवन में उतारें।
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