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कानून हथियार नहीं, संतुलन और संवेदना का पुल है

आभा सिंह, वरिष्ठ अधिवक्ता
बॉम्बे हाईकोर्ट

जयपुरJul 31, 2025 / 04:00 pm

Shaily Sharma

सुप्रीम कोर्ट ने 22 जुलाई को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा‘जिस पीड़ा को उन्होंने झेला, उसकी भरपाई नहीं हो सकती।’यह टिप्पणी किसी साधारण मामले में नहीं, बल्कि एक आइपीएस अधिकारी पत्नी द्वारा अपने पति और उसके परिवार पर दर्ज किए गए झूठे आपराधिक मुकदमों के संदर्भ में की गई थी। यह टिप्पणी न केवल उस पीड़ा की स्वीकारोक्ति है, जो झूठे आरोपों से गुजरने वाले व्यक्ति और उसके परिवार को होती है, बल्कि यह कानून और न्याय के बीच संतुलन के एक नए युग की दस्तक भी है।आइपीएस अधिकारी शिवांगी बंसल का विवाह 2016 में हुआ। उनके पति साहिब बंसल हैं और एक बेटी भी है।2018 में दोनों के बीच बढ़ती तनाव ने वैवाहिक जीवन को तनाव में बदल दिया और दोनों अलग रहने लगे। इस मामले की असाधारणता इस बात में थी कि पत्नी ने पति और उसके परिवार पर एक के बाद एक कुल 15 मुकदमे दर्ज कर दिए, जिनमें 498-ए (घरेलू हिंसा), 307 (हत्या का प्रयास), 376 (बलात्कार), 406 (विश्वासघात) जैसी गंभीर धाराएं शामिल थीं। इन मुकदमों के चलते पति को 109 और उसके पिता को 103 दिन जेल में बिताने पड़े। सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर स्पष्ट कहा कि इस मानसिक, सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न की कोई पूर्ति संभव नहीं।
यह प्रकरण 2024 में बेंगलूरु के अतुल सुभाष की दर्दनाक घटना की याद दिलाता है, जिसमें 34 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर अतुल ने 24 पन्नों का सुसाइड नोट और वीडियो छोड़ते हुए कहा था कि उस पर हत्या, दहेज, घरेलू हिंसा व यौन अपराधों सहित नौ झूठे मुकदमे लगाए गए थे। उसकी पत्नी के परिवार ने निजी रूप से मामले के निपटारे के लिए तीन करोड़ रुपये की मांग की थी।शिवांगी बंसल का मामला केवल एक वैवाहिक संघर्ष नहीं था, बल्कि कानून, पद और सत्ता के दुरुपयोग का एक खतरनाक उदाहरण भी था। पत्नी के पास एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के रूप में जितनी शक्ति थी, वह इस कानूनी प्रक्रिया में एक हथियार की तरह इस्तेमाल हुई। यही कारण था कि सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देना पड़ा कि आइपीएस अधिकारी अब भी अपने पद, रैंक या प्रभाव का पति या उसके परिवार के विरुद्ध दुरुपयोग नहीं करेंगी, न ही भविष्य में किसी सहयोगी या वरिष्ठ अधिकारी के प्रभाव का उपयोग इस उद्देश्य से करेंगी। इतना ही नहीं, पति और उसके परिजनों को पुलिस सुरक्षा भी प्रदान की गई।
यह निर्णय सिर्फ एक परिवार की सुरक्षा नहीं, बल्कि सत्ता के संस्थागत दुरुपयोग को रोकने का संवैधानिक हस्तक्षेप भी है। न्यायपालिका ने इस मामले को साधारण तरीके से निपटाने के बजाय एक नैतिक समाधान भी प्रस्तावित किया। कोर्ट ने आदेश दिया कि पत्नी बिना शर्त सार्वजनिक माफीनामा अंग्रेजी और हिंदी भाषा में देश के प्रतिष्ठित अखबारों में तीन दिनों के भीतर प्रकाशित करें और उसे फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया माध्यमों पर साझा करें। इस माफीनामे का प्रारूप भी कोर्ट ने ही तय किया, जिसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की अनुमति नहीं दी गई। यह पहल इस बात की स्वीकारोक्ति है कि कभी-कभी न्याय कानूनी दंड से अधिक नैतिक संतुलन से बहाल होता है। यह प्रकरण एक बार फिर धारा 498-ए (घरेलू हिंसा) के दुरुपयोग पर बहस को सामने लाता है। एनसीआरबी की 2020 रिपोर्ट के अनुसार, 498-ए के तहत दर्ज 1,11,549 मामलों में से 5,250 झूठे पाए गए, जबकि 16,151 मामले ऐसे थे, जिन्हें पुलिस ने साक्ष्य के अभाव या दीवानी विवाद होने के कारण बंद कर दिया। 2022 में 83,713 विवाहित पुरुषों ने आत्महत्या की, वहीं महिलाओं की संख्या 30,771 रही।
एक सर्वे के अनुसार, 1000 पुरुषों में से 515 ने स्वीकारा कि वे पत्नी द्वारा हिंसा के शिकार हुए। इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि कानून के नाम पर पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय में इलाहाबाद हाईकोर्ट के 13 जून 2022 के निर्णय में सुझाए गए फैमिली वेलफेयर कमेटी के मॉडल को पूरे देश में लागू करने का आदेश दिया। इस मॉडल में यह प्रावधान हैं कि एफआईआर के बाद दो माह का ‘कूलिंग ऑफ पीरियड’ रहेगा, जिसमें कोई गिरफ्तारी नहीं होगी। प्रत्येक शिकायत को फैमिली वेलफेयर कमेटी को भेजा जाएगा, जिसमें दोनों पक्षों की पारिवारिक मध्यस्थता होगी। कमेटी में युवा वकील, कानून के विद्यार्थी, सामाजिक कार्यकर्ता और सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी शामिल होंगे। इसी रिपोर्ट के आधार पर अग्रिम कानूनी कार्रवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सिर्फ न्यायिक आदेश नहीं, बल्कि समाज में न्याय के नए विमर्श की शुरुआत है, जिसमें पीड़ित को केवल कानूनी नहीं, नैतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक राहत भी मिलनी चाहिए। यह फैसला दिखाता है कि कानून की आत्मा सजा नहीं, संतुलन है। शक्ति नहीं, संवेदना है। जब कोर्ट यह कहता है कि ‘जिस पीड़ा की कोई भरपाई नहीं’ तो समाज को चेतावनी दे रहा होता है कि कानून को हथियार नहीं, पुल बनाइए।
एनसीआरबी की 2020 की रिपोर्ट

1,11,549 मामले 498-ए के तहत दर्ज हुए

5,250 मामले झूठे पाए गए

16,151 मामले साक्ष्य के अभाव या दीवानी विवाद के कारण बंद हुए

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