जीएसटी व्यवस्था को आसान बनाने की जरूरत
मधुरेन्द्र सिन्हा, वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार


भारत में नब्बे के दशक में जब आर्थिक उदारीकरण हुआ उसके बाद आर्थिक सुधारों की, जो बातें हुई उनमें था एक था वन नेशन वन टैक्स का फैसला। इसके तहत ही जीएसटी की तैयारी की गई और कमेटियां भी बनीं। कई सरकारों से गुजरता हुआ यह अंत में जीएसटी के रूप में पहली जुलाई 2017 को संसद में पारित हुआ और इसे टैक्स वसूली और कारोबारियों को राहत देने की दिशा में एक गेम चेंजर माना गया। तत्कालीन वित्त मंत्री अरूण जेटली ने इस पर बहुत काम किया था और उम्मीद जताई थी कि यह टैक्स भरने में बेहद आसान व्यवस्था बन जाएगा। लेकिन शुरुआत बुरी हुई और पहले तो इसकी वेबसाइट बार-बार क्रैश करने लगी। फिर बहुत से कॉलम भी आसानी से भरे नहीं जा रहे थे। इन तकनीकी समस्याओं से जूझते हुए भी इस सुधार को आगे बढ़ाया गया। लेकिन इसमें तरह-तरह की अड़चनें आने लगीं, जिसका अंत अब तक होता नहीं दिख रहा है। कारोबारियों को, जो बताया गया कि यह आसान व्यवस्था होगी और उनके लिए टैक्स भरना पहले से भी आसान होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कई तरह की समस्याएं आती रहीं और कई तरह की विसंगतियां भी। लेकिन पूर्ण समाधान होता नहीं दिख रहा है। दरअसल जीएसटी को शुरू करने तथा सुचारू रूप से लागू करने के लिए एक जीएसटी काउंसिल बनाई गई थी और वह अब भी इसका काम देखती है। भारत सरकार के वित्त विभाग के अंतर्गत यह नहीं है सिवा इसके कि केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इसकी अध्यक्षता करती हैं। उन्हें अपने बूते किसी भी तरह का फैसला करने का अधिकार नहीं है। वहां जो भी फैसले होते हैं वे सभी बहुमत से होते हैं यानी सभी राज्यों के चुने प्रतिनिधियों द्वारा जो सामान्य रूप से वहां के वित्त मंत्री होते हैं। यह इस काउंसिल का लोकतांत्रिक स्वरूप जताता है लेकिन यह कई बड़े फैसले न ले पाने का कारण भी बनता है। वित्त मंत्री की बहुत इच्छा रही है कि पेट्रोल-डीजल को जीएसटी में शामिल किया जाए ताकि इसके दाम भी पूरे देश में लगभग एक समान हों, लेकिन कई सदस्य इसे होने नहीं दे रहे हैं। वे अपने-अपने राज्यों के संकीर्ण हित में चलते हुए ऐसा नहीं होने देते। जब भी किसी राज्य को अपना राजस्व बढ़ाना होता है वह तुरंत ही पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ा देता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कर्नाटक जहां इनकी कीमतें सबसे ज्यादा हैं। अगर इस पर जीएसटी लगा होता तो ऐसा संभव नहीं था।
यह तो हुई जनता की परेशानी। अब आते हैं कारोबारियों-व्यापारियों पर जो अब तक जीएसटी भुगतान में सहज नहीं हो पा रहे हैं। इसमें कई तरह की विसंगतियां हैं, मसलन दो तरह के सामान जो मिलकर एक उत्पाद होते हैं, उन पर अलग-अलग टैक्स दरें हैं। यह कारोबारी के लिए एक परेशानी है। अगर हम भारत के एक पॉपुलर स्नैक ‘बन मस्का’ को देखेंगे तो पायेंगे कि बन पर टैक्स की दर अलग है और मस्का यानी मक्खन पर अलग। अब व्यापारी किस दर से टैक्स लेगा? रेस्तरां में रोटी पर कम टैक्स है तो परांठे पर ज्यादा। बिना एसी वाले रेस्तरां के लिए अलग दर है तो एसी वाले के लिए अलग। फाइव स्टार होटलों के रेस्तरां पर अलग दर है तो छोटे होटलों के लिए अलग। खुले सामान पर कोई टैक्स नहीं है लेकिन पैकेट में आते ही उस पर टैक्स लगेगा। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जो जीएसटी की विसंगतियां बताती हैं। इसके अलावा कई सेवाओं पर 18 फीसदी का भारी भरकम टैक्स भी है। एक ओर तो सरकार जनता के स्वास्थ्य को लेकर चिंता जाहिर करती है और स्वास्थ्य बीमा को बढावा देने की बात करती है तो दूसरी ओर काउंसिल ने हेल्थ इंश्योरेंस पर 18 फीसदी जीएसटी लगा रखा है।
व्यापारियों का कहना है कि दरों में विसंगति न हो और उन्हें तार्किक बनाया जाए। उनकी यह भी शिकायत है कि वे पूरे माह जीएसटी रिटर्न भरने में लगे रहते हैं नहीं तो लाखों की देनदारी का नोटिस आ जाता है। रेस्तरां के एसी या नॉन एसी होने से जीएसटी कैसे घट-बढ़ सकता है जबकि आज देश में निम्न आय वर्ग के लोग भी भीषण गर्मी की मार से बचने के लिए अपने घरों में एसी लगाते हैं। इस समय टैक्स के चार स्लैब हैं-5,12,18 और 28 फीसदी। इन्हें घटाकर तीन स्लैब करना चाहिए। इन दरों को तर्कसंगत बनाने से वैधानिक मामले कम हो जाएंगेे। साथ ही, जीएसटी की रिटर्न प्रणाली और इनपुट टैक्स क्रेडिट नीति में भी बदलाव की जरूरत है। जीएसटी लागू हुए 8 वर्ष हो गए, लेकिन इसके नियमों में हर महीने बदलाव होते रहते हैं, जिससे व्यापारियों में भ्रम पैदा होता है। इसके अलावा जीएसटी से जुड़े मामलों के लिए कोई ट्रिब्यूनल नहीं है और कारोबारियों को विवाद की स्थिति में हाईकोर्ट जाना पड़ता है। यह पैसे और समय की बर्बादी है। ऐसे में एक विवाद निबटारा ट्रिब्यूनल होना ही चाहिए।
यह तो थी ग्राहकों और कारोबारियों की परेशानी। लेकिन सरकार की शिकायत है कि अब भी जीएसटी की बड़े पैमाने पर चोरी हो रही है। कई राज्यों में भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से चोरी हो रही है। साल 2022-23 में देश में दो लाख करोड़ रुपए की टैक्स चोरी पकड़ी गई। पिछले पांच वर्षों में केन्द्रीय जीएसटी अधिकारियों ने टैक्स चोरी के 86,717 मामलों का पता लगाया, जिससे 6.79 लाख करोड़ रुपए की हेराफेरी का पता लगा।
जीएसटी के नियम बनाने में लंबे समय जुड़े रहे सुमित दत्त मजूमदार, जो सीबीसीई के चेयरमैन भी रहे और जिन्होंने पी. चिदंबरम तथा प्रणव मुखर्जी के साथ काम किया था, कहते हैं कि जीएसटी के नियमों को इतना सरल कर दिया जाना चाहिए कि छोटे से छोटे कारोबारी को भी यह आसानी से समझ में आ जाए। टैक्सेशन सिर्फ राजस्व उगाही का माध्यम नहीं होना चाहिए, यह जनता के हित में होना चाहिए।
कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स नामक संगठन के संस्थापक और महासचिव प्रवीण खंडेलवाल, जो अब सांसद हैं, इस मामले पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि जीएसटी को बेहतर बनाने के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं। बिहार के वित्त मंत्री सम्राट चौधरी इस समय इसकी कमान संभाल रहे हैं। उन्होंने वित्त मंत्रियों के समूह (जीओएम) में इस पर काफी चर्चा की है। अगले महीने जीएसटी कांउसिल की बैठक में इन पर विचार होगा। उन्होंने यह भी बताया कि कुछ चीजों और सेवाओं पर जीएसटी की दर घटाने की भी बात चल रही है।
अब प्रधानमंत्री ने इसमें दिलचस्पी दिखाई है और उम्मीद की जा रही है कि जीएसटी काउंसिल इसमें आमूल चूल बदलाव करेगा। टैक्स के स्लैब घटाए जाएंगे तथा सरलीकरण की प्रक्रिया पर जोर दिया जाएगा।
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