ज ब तक अनुकूल आधार नहीं हो कोई भी कानून कारगर नहीं हो सकता। हमारे देश में अधिक अनुपात उन लोगों का है जो कागजों में कारोबार का हिसाब नहीं रखते। इससे भी अधिक अनुपात उनका है जो कारोबार तो करते हैं लेकिन बैंकों से व्यवहार नहीं रखते। इससे भी अधिक अनुपात में वे लोग हैं जो बहीखाते भी रखते हैं, बैंकों से व्यवहार भी करते हैं परन्तु चंदा चिट्ठा या चाय-पानी का बंदोबस्त करके कर को बचा लेते हैं या नाम मात्र का कर देकर अधिकांश पूंजी किसी न किसी कारोबार में लगाए रखते हैं या छिपा लेते हैंं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि देशवासियों को आयकर देना मंजूर ही नहीं है। देशवासियों की यह वृत्ति उचित है या अनुचित यह भिन्न है। यथार्थ यह है कि आयकर यहां स्वीकार्य ही नहीं है। इसके कुछ कारण तो परिस्थितिजन्य हैं और कुछ स्वभावजन्य। स्वभाव यह देखने में आया है कि देशवासी अपनी कमाई को स्वयं खर्च करना पसंद करते हैं। जिन कार्यों के लिए सरकार कर वसूली करती है उनमें अधिकांश कार्य देशवासी स्वयं करना चाहते हैं। यदि उनकी कमाई उनके पास छोड़ दी जाए तो वे सरकार की कई जिम्मेदारियां- उदाहरण के लिए उच्च शिक्षा, अस्पताल, पुस्तकालय, संग्रहालय, स्टेडियम, बाग-बगीचे, मन्दिर-मस्जिद, धर्मशालाएं, कला-कौशल इत्यादि का सारा खर्च स्वयं वहन कर लेंगे।
आयकर से होने वाली संपूर्ण आय का कई गुना इन मदों पर सरकार को खर्च करना पड़ता है। आयकर कानून समाप्त कर दिया जाए तो न केवल देशवासी कर भार से मुक्त होंगे बल्कि सरकार का भार और ज्यादा हल्का होगा। आयकर समाप्त कर देने में लाभ ही लाभ हैं। यदि आयकर समाप्त कर दिया जाए तो देशवासियों की सारी कमाई उपार्जन में लग जाएगी और उससे जो राजकोष की आय बढ़ेगी वह आयकर की आय से कहीं अधिक होगी। बदखर्ची पर एकदम अंकुश लग जाएगा। आज तो हाल यह है कि लोग कालेधन का उपयोग करने के लिए शादियों, पार्टियों वगैरह में अनाप-शनाप खर्च करते हैं, फिर एक-एक पैसा उपार्जन में लगेगा। कोई भी फिजूलखर्ची पसंद नहीं करेगा। मैं छापामारी के बारे में भी कुछ कहना आवश्यक समझता हूं। यह सर्वथा निंदनीय है कि आयकर न देने वालों को चोर-डाकू की तरह बरता जाए। माना कि लोग कर चुराते हैं, परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि वे कमाई का एक हिस्सा देते भी हैं। इसकी व्याख्या यों नहीं की जा सकती कि उन्होंने चोरी की है या डाका डाला है किसी दूसरे की कमाई पर। यहां चोर-चोर में फर्क करना होगा। कितना बेहूदा-बर्बर या जंगली तरीका है कि करदाता के घर-दफ्तर पर फौज पल्टन लेकर धावा बोल दिया जाए और उसका खाना-पीना हराम कर दिया जाए। आयकर नियमों में छापेमारी का प्रावधान हो सकता है परंतु यह प्रावधान ठगों और पिंढारियों की सभ्यता का सूचक है। आयकर को लेकर दृष्टिकोण व कार्यप्रणाली बदलनी होगी।
( 30 जुलाई 1986 को ‘आयकर को समाप्त करना ही होगा’ आलेख से)
समानांतर अर्थव्यवस्था भा रत की अर्थनीति की विसंगति यह तो नहीं कि देश में आयकर लागू है, परन्तु आयकर में भी हमें एक प्रयोग कर देखना चाहिए। मैं कई बार कह चुका हूं कि आयकर कुछ समय के लिए समाप्त कर देना चाहिए। इस कर को सरकार की बहुत बड़ी आय का साधन मानना ठीक नहीं है। सरकार भी यह मानती है कि भारत में समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है। इसका मतलब यह हुआ कि न केवल आयकर चुरा कालाधन बटोरा जा रहा है बल्कि उस धन से पूरा कारोबार और घर चलाया जा रहा है।
(कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से)