scriptशहरी अव्यवस्थाएं: नीतिगत खामियों का आईना | Patrika News
ओपिनियन

शहरी अव्यवस्थाएं: नीतिगत खामियों का आईना

संतोष नारगुंड , निदेशक
पॉलिसी एंगेजमेंट, जनाग्रह

जयपुरJul 25, 2025 / 03:08 pm

Shaily Sharma

भारत के विभिन्न शहरों से आए दिन जल संकट, प्रदूषण, आग, भगदड़ या ढहती हुई नगरीय सेवाओं की खबरें आती रहती हैं। इनका मुख्य कारण स्थानीय स्तर पर समुचित योजना और प्रबंधन की कमी है। गांवों से शहरों की ओर पलायन के कारण शहरी आबादी में लगातार वृद्धि हो रही है, जिससे समस्याएं और गंभीर होती जा रही हैं। मानवीय क्षति और आर्थिक नुकसान के रूप में हमें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। हम इन घटनाओं से खुद को अलग नहीं कर सकते। इन अव्यवस्थाओं को जीवन की सामान्य स्थिति मानकर नहीं जी सकते। ये नागरिक समस्याएं और बदतर जीवन-स्थितियां हमारे शहरों में गहरे व्यवस्थागत संकट की स्पष्ट पहचान हैं।
1 जून 1993 से लागू 74वें संविधान संशोधन ने नगर शासन को संवैधानिक दर्जा देकर विकेन्द्रीकृत शहरी शासन का ढांचा प्रदान किया था। इसके तहत निर्वाचित नगर निकायों, 18 प्रमुख कार्यों के हस्तांतरण, निश्चित राजस्व स्रोतों और नागरिक भागीदारी का प्रावधान किया गया था। लेकिन तीन दशकों बीतने के बाद भी आत्मनिर्भर और उत्तरदायी नगर सरकारें धरातल पर नहीं उतरी हैं।
अधिकांश राज्यों में जलापूर्ति, स्वच्छता, नगर नियोजन, आवास और परिवहन जैसे कार्य अब भी सरकारी या अर्द्ध सरकारी विभागों के अधीन हैं। निर्वाचित महापौर और पार्षदों के पास वास्तविक शक्तियां नहीं हैं। बजट और कर्मचारी राज्य सरकारों के नियंत्रण में हैं। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की नियुक्ति तक ऊपरी मंजूरी पर निर्भर है। संविधान की मंशा और वास्तविक शासन के बीच की यह खाई ही भारत के शहरी संकट की जड़ है।
निस्संदेह, पिछले तीन दशकों में शहरी क्षेत्र में निवेश काफी बढ़ा है। केंद्र सरकार का बजटीय आवंटन 1991-92 में 600 करोड़ रुपए से बढ़कर 2024-25 में 82,577 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है, लेकिन वास्तविक खर्च में हाल के वर्षों में ठहराव या गिरावट आई है। 2021-22 से 2024-25 के बीच बजट अनुमान 54,581 करोड़ से बढ़कर 82,577 करोड़ हुआ, जबकि वास्तविक व्यय 78,840 करोड़ से घटकर 68,670 करोड़ रह गया। 14 फरवरी 2025 तक केवल 42,794 करोड़ खर्च हो सके। संसद की आवास और शहरी कार्य संबंधी स्थायी समिति ने दिसंबर 2024 और मार्च 2025 की रिपोर्टों में शहरी विकास योजनाओं के प्रमुख कार्यक्रमों में बजट के कम उपयोग की ओर ध्यान दिलाया है।
राज्य सरकारें भी आमतौर पर शहरी बजट का पूरा उपयोग नहीं कर पातीं। परिणामस्वरूप एक ओर शहरों को निवेश की 65 प्रतिशत कमी झेलनी पड़ती है, दूसरी ओर बड़ी धनराशि खर्च नहीं हो पाती। स्थानीय सरकारों की योजना निर्माण और क्रियान्वयन की कमजोर क्षमता जीवन स्तर पर सीधा असर डालती है। स्थायी समिति ने विकसित भारत 2047 के लिए एक समग्र शहरी दृष्टिकोण बनाने पर बल दिया है, जिसे सभी संबंधित पक्षों की भागीदारी से तैयार किया जाना चाहिए। यथास्थिति को बदलने के लिए निर्णायक और बहुस्तरीय कार्रवाई जरूरी है।
सबसे पहले, केंद्र स्तर पर 74वें संविधान संशोधन की समीक्षा होनी चाहिए, ताकि वे अस्पष्टताएं दूर हों जिनके आधार पर राज्य सरकारें विकेंद्रीकरण को टालती या कमजोर करती हैं। संशोधन में महापौर और नगर परिषदों की प्रधानता सुनिश्चित करने के प्रावधान सख्ती से लागू किए जाएं। महापौर और नगर सरकारों का कार्यकाल पूरे देश में 5 वर्ष का निश्चित होना चाहिए।
कैग के अनुसार, ऑडिट किए गए 60 प्रतिशत से अधिक शहरों में सक्रिय निर्वाचित परिषदें नहीं थीं। राज्य निर्वाचन आयोगों को पूरी तरह सशक्त किया जाना चाहिए, जिसमें वार्ड परिसीमन और आरक्षण का अधिकार भी शामिल हो, जो स्थानीय चुनावों में देरी का प्रमुख कारण हैं। परिसीमन और आरक्षण की 10 वर्षीय तय समय-सीमा होनी चाहिए, ताकि राज्य सरकारों की मनमानी न चल सके। केंद्र सरकार को चाहिए कि वह नगर निकाय चुनावों के लिए एक मॉडल कानून बनाए और विभिन्न आकार के शहरों के लिए उपयुक्त शासन ढांचा विकसित करे। केंद्र और राज्य सरकारों को यह स्वीकार करना होगा कि दिल्ली या राज्य की राजधानियों से 8500 से अधिक नगर क्षेत्रों का प्रभावी शासन संभव नहीं है।
वर्तमान में शहरी अवसंरचना का 72 प्रतिशत वित्त पोषण केंद्र और राज्य सरकारें कर रही हैं, जो नगर निकायों को दरकिनार कर अपने विभागों और निगम-बोर्डों से योजनाएं लागू करवाती हैं, जिससे स्थानीय सरकारें अप्रभावी बन जाती हैं। कैग के अनुसार, संविधान प्रदत्त 18 कार्यों में से औसतन केवल 4, यानी 25 प्रतिशत से भी कम, नगर निकायों को पूरी तरह सौंपे गए हैं।
अब आवश्यक है कि पूरे देश में लगभग 5,000 निर्वाचित महापौरों-अध्यक्षों और एक लाख से अधिक पार्षदों को पूरी तरह सशक्त और उत्तरदायी बनाया जाए। केंद्र और राज्य सरकारें नगर सरकारों को पर्याप्त संसाधन, स्वतंत्र फंड और तकनीकी सहयोग प्रदान करें ताकि वे समग्र योजनाएं बना सकें और उनका प्रभावी क्रियान्वयन कर सकें। स्वायत्त एजेंसियों को निर्वाचित नगर सरकारों के नियंत्रण में लाना और उन्हें नगर परिषदों के प्रति उत्तरदायी बनाना अनिवार्य है।
सतत शहरी विकास नागरिकों की सक्रिय भागीदारी के बिना संभव नहीं। कचरा प्रबंधन, जल सुरक्षा, गतिशीलता और वायु गुणवत्ता जैसी चुनौतियों से निपटने में स्थानीय साझेदारी जरूरी है। नगर सरकारों को नागरिकों को सिर्फ लाभार्थी नहीं, बल्कि साझेदार समझना होगा। निष्क्रिय पड़े वार्ड समिति जैसे मंचों को पुनः सक्रिय कर उन्हें स्थानीय विकास की योजना और निगरानी का अधिकार देना होगा। यदि विकसित भारत का सपना साकार करना है तो शहरों को इसके केंद्र में रखना होगा और शहरी शासन में व्यापक सुधारों को जनभागीदारी के जनांदोलन का रूप देना होगा।

Hindi News / Opinion / शहरी अव्यवस्थाएं: नीतिगत खामियों का आईना

ट्रेंडिंग वीडियो