‘हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता,
क्या शस्त्र ही-उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का !’
करगिल युद्ध के उपरांत और अभी कुछ माह पहले पहलगाम में पर्यटकों के बर्बरतापूर्ण नरसंहार के बाद कुछ प्रश्न हैं, जो निरंतर हमारे समक्ष खड़े होते हैं।
पाकिस्तान ने ऐसी धृष्टता क्यों की? पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए कश्मीर की प्रबल आवश्यकता रही है। इसके अलावा जैसे ही वहां आतंरिक उथल पुथल होती है वैसे ही वहां के राजनीतिक और सैन्य सत्ता प्रतिष्ठानों में जम्मू कश्मीर में अशांति फैलाने के प्रयास जोर पकड़ लेते हैं। 1998-99 में पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठानों में यह चिंता बढ़ती जा रही थी कि कश्मीर का मुद्दा अपनी अंतरराष्ट्रीय महत्ता खो रहा है। फलस्वरूप जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों को फिर से जीवित करने की आवश्यकता पड़ी। मुजाहिदीन आतंकियों की आड़ में एक सैन्य खतरा पैदा किया गया। लाहौर समझौते के बाद पाकिस्तान से नए सिरे से संबंधों को स्थापित करने के प्रयास में भारत ने उसकी धूर्तता को थोड़ा कम आंका। परिणामस्वरूप पाकिस्तानी सेना और मुजाहिदीन आतंकियों ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन भी किया और अतिक्रमण भी। पर भारतीय सेना ने उनके सभी इरादों को चूर-चूर कर दिया। पाकिस्तानी घुसपैठिये या तो भाग गए या मार दिए गए।
इससे संबंधित अगला प्रश्न है कि क्या पाकिस्तान के छद्म युद्ध का उत्तर प्रतिक्रियात्मक सैनिक कार्रवाई ही है? पाकिस्तान इस प्रकार के छद्म युद्ध में पारंगत है। इसमें युद्ध के विभिन्न तरीकों की पूरी शृंखला शामिल होती है, जिनमें पारंपरिक क्षमताएं, अनियमित रणनीतियां और संरचनाएं, अंधाधुंध हिंसा, आतंकवादी कृत्य और आपराधिक अव्यवस्था शामिल हैं, जो राज्य और विभिन्न गैर-राज्य कर्ताओं द्वारा की जाती हैं। पाकिस्तान के लिए छद्म युद्ध और आतंकवाद द्वारा उत्पन्न दबाव की कपट-विद्या का उपयोग शांति काल और शांति वार्ता के दौरान सबसे अधिक किया जाता रहा है। छद्म युद्ध को जारी रखते हुए पाकिस्तान को इसे इस तरह से इस्तेमाल करना कि जब भी चाहें भारत पर कूटनीतिक और सैन्य दबाव डाला जा सके। पाकिस्तानी राजनेताओं और सैन्य अधिकारियों के बीच इस रणनीति में पूर्ण सहमति रही है। लाहौर घोषणा पर हस्ताक्षर का पाकिस्तान की इस छद्म युद्ध नीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
करगिल युद्ध में शर्मनाक हार के बाद भी पाकिस्तान छद्म युद्ध का समर्थन और नियंत्रण करता रहा। सर्जिकल स्ट्राइक्स और ऑपरेशन सिंदूर मेंभारत ने साफ संदेश दिया कि नियंत्रण रेखा के उस पार बनी आतंक की फैक्टरियों को खत्म करना कोई मुश्किल काम नहीं। पाकिस्तान को सीमापार आतंकवाद और घुसपैठ को रोकना ही होगा। जब तक वह कश्मीर में आतंकवादियों को नैतिक और आर्थिक-भौतिक समर्थन देता रहेगा, भारत के पास मुंहतोड़ जवाब देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इस उहापोह का एक ही उत्तर है, जो प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर दिया कि आतंक और बातचीत साथ-साथ नहीं होगी, खून और पानी साथ-साथ नहीं बहेगा। जिसे हम अक्सर घुसपैठ या अनुचित हस्तक्षेप कहते हैं, वह वास्तव में एक पूर्ण आक्रमण है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि पाकिस्तान नियंत्रण रेखा के संबंध में अपनी आक्रामकता को पूरी तरह से खत्म करे। उसकी सैन्य एजेंसियों को जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध को तेज करने और लेह से सियाचिन तक तनाव बढ़ाने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए।
एक और प्रश्न यह है कि हमें अंतरराष्ट्रीय समुदाय से कितनी अपेक्षा रखनी चाहिए? अंतरराष्ट्रीय समुदाय शांति की बात तो हमेशा करता है पर भारत के समर्थन में कौन, कब, किस प्रकार आता है ये उस काल की सामरिक और रणनीतिक परिस्थितियों पर आधारित होता है। करगिल युद्ध भारत के लिए न सिर्फ सैन्य-विजय रहा, बल्कि कूटनीतिक दृष्टि से भी भारत ने पाकिस्तान के नापाक इरादों को अंतरराष्ट्रीय पटल पर स्थापित किया। रूस और इजरायल ने पूरे युद्ध के दौरान खुलकर भारत का समर्थन किया। 18-20 जून, 1999 को कोलोन में आयोजित जी-8 शिखर सम्मेलन में नियंत्रण रेखा के बारे में भारतीय दृष्टिकोण को सराहा गया। इसमें पाकिस्तान का नाम लिए बिना ‘यथास्थिति (नियंत्रण रेखा पर) बदलने वाली किसी भी सैन्य कार्रवाई को गैर-जिम्मेदाराना’ बताया गया और इसलिए इन कार्रवाइयों को तुरंत रोकने और दोनों पक्षों से तत्काल युद्धविराम के लिए कहा गया। साथ ही भविष्य में नियंत्रण रेखा का पूरा सम्मान करने और लाहौर घोषणा की भावना के अनुरूप भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत फिर से शुरू करने का आह्वान किया गया। चीन, जो भारत के विरुद्ध पाकिस्तान का घनिष्ठ मित्र और सहयोगी रहा, वह भी करगिल प्रकरण में पाकिस्तान को पूर्ण समर्थन नहीं दे सका। इससे पहले अमरीका ने पाकिस्तान के खिलाफ इतनी मुखरता और स्पष्टता से कभी आवाज नहीं उठाई थी, खासकर जब भारत इसमें शामिल था। वाशिंगटन और वाइट हाउस ने नवाज शरीफ को नियंत्रण रेखा पार से अपनी सेना वापस बुलाने के लिए स्पष्ट निर्देश दिए। करगिल युद्ध में अंतरराष्ट्रीय पटल पर पाकिस्तान एक आक्रमणकारी के रूप में देखा गया। पाकिस्तान कूटनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ गया था।
करगिल विजय दिवस पर हर व्यक्ति, संस्थान, देश एवं वैश्विक पटल पर एक संदेश साफ और स्पष्ट रूप से जाना चाहिए कि भारत अपनी स्वतंत्रता, अखंडता और संप्रभुता की रक्षा करने में सक्षम है। इस देश के वीर जवानों ने न कभी इस पर आंच आने दी है न आने देंगे। करगिल युद्ध में भारतीय सशस्त्र बलों को वीरता और बलिदान के लिए सम्मानित किया गया। चार सैनिकों को सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र प्रदान किया गया। अदम्य साहस का प्रदर्शन करने के लिए 9 सैनिकों को महावीर चक्र और 72 को वीर चक्र प्रदान किया गया। विशिष्ट सेवा के लिए 600 से अधिक कर्मियों को सेना पदक प्रदान किया गया, जबकि 400 से अधिक सैनिकों को वीरता या सराहनीय कार्यों के लिए डिस्पैच में उल्लेखित किया गया। इसके अतिरिक्त लगभग 200 सैनिकों को युद्ध सेवा पदक से सम्मानित किया गया। करगिल विजय दिवस पर सैनिकों के शौर्य, साहस और उनके सर्वोच्च बलिदान पर ये राष्ट्र गौरवान्वित भी है और नतमस्तक भी।