यह समझौता केवल व्यापार का नहीं, विश्वास का भी है और यह विश्वास तब और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब दोनों देशों ने पिछले कुछ वर्षों में एक-दूसरे को कई बार संदेह की दृष्टि से देखा है। ब्रिटेन के लिए यह समझौता उस राजनीतिक अस्थिरता के बाद आया है, जिसने ब्रेक्जिट के बाद उसकी विदेश नीति को कई मोर्चों पर झटका दिया था।यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के बाद उसे ऐसे साझेदारों की तलाश थी, जो सिर्फ बाजार न दें, बल्कि भरोसेमंद रणनीतिक सहयोगी भी हों। नरेंद्र मोदी की ब्रिटेन यात्रा इस अर्थ में निर्णायक मानी जाएगी कि उन्होंने कीर स्टार्मर के साथ एक नए युग की साझेदारी की आधारशिला रखी, जिसमें बाजार की बातचीत के साथ-साथ सुरक्षा, संप्रभुता और प्रवासी अस्मिता के प्रश्नों को भी जगह मिली।
मोदी ने लंदन पहुंचते ही यह साफ कर दिया था कि भारत अब केवल निवेश चाहता है, ऐसा नहीं है। वह इज्जत भी चाहता है और अपने झंडे की सलामती भी। खालिस्तानी गतिविधियां, जिनकी वजह से बीते वर्षों में भारत-ब्रिटेन संबंधों में तल्खियां आई थीं, इस बार भी बातचीत का अहम हिस्सा रहीं। मोदी ने बिना लहजे को तीखा किए यह संदेश पहुंचाया कि लोकतंत्र की आड़ में भारत-विरोधी चरमपंथ को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।स्टार्मर ने भी पहली बार इस विषय पर अपेक्षित स्पष्ट रुख लिया यह कहते हुए कि ब्रिटेन किसी भी रूप में आतंकी या अलगाववाद के समर्थन की जमीन नहीं बनेगा। यह एक नई भाषा थी, जिसमें भारत ने अपनी भावनाओं को सलीके से रखा और ब्रिटेन ने पुराने ‘कॉमनवेल्थ वाले’ दंभ से बाहर निकलकर समक्षता की शैली अपनाई। यही शैली इस समझौते की असली जीत है।
आर्थिक आंकड़ों की बात करें तो ब्रिटेन भारतीय फार्मास्युटिकल्स, टेक्नोलॉजी और सेवाओं के लिए अपने दरवाजे खोलेगा, वहीं भारत ब्रिटिश ऑटोमोबाइल, शराब और उच्च शिक्षा क्षेत्र में व्यापारिक पहुंच देगा। लेकिन इन आंकड़ों से कहीं बड़ी बात यह है कि दोनों देश अब एक-दूसरे को केवल ‘सुविधा के मित्र’ नहीं, बल्कि खुद को दीर्घकालिक साझेदार के रूप में देखने को तैयार हुए हैं।
इस बदलाव का एक और संकेत प्रवासी भारतीय समुदाय को लेकर दोनों देशों के नजरिए में दिखा। मोदी ने इस समुदाय से संवाद कर एक बार फिर यह जताया कि विदेश में बसे भारतीय भी भारत की कूटनीतिक शक्ति के विस्तार का हिस्सा हैं।
यह समझौता ऐसे समय में हुआ है, जब विश्व व्यवस्था लगातार खंडित हो रही है — यूक्रेन युद्ध, चीन की आक्रामकता और दक्षिण एशिया में राजनीतिक तनाव। ऐसे समय में भारत और ब्रिटेन का यह समझौता बताता है कि दो लोकतंत्र, भिन्न ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बावजूद, साझा उद्देश्य और पारस्परिक सम्मान के आधार पर एक नई साझेदारी गढ़ सकते हैं।मोदी और स्टार्मर ने एक दस्तखत से एक दरवाजा खोला है, लेकिन उस दरवाजे से कितनी ईमानदारी और गहराई के साथ दोनों देश चलकर भीतर आएंगे, यही आने वाले वर्षों में तय करेगा कि यह साझेदारी कितनी टिकाऊ और कितनी विश्वसनीय है। हर वीजा आवेदन, व्यापारिक डील और कूटनीतिक संवाद में इसका असर दिखाना होगा।
भारत ने अपने हिस्से की स्पष्टता दिखा दी है, अब बारी ब्रिटेन की है कि वह पुराने आरोपों, राजनीतिक मजबूरियों और ‘नरम रवैए’ से ऊपर उठे।
यह जो समझौता हुआ है, वह केवल अर्थशास्त्र का नहीं, एक नए कूटनीतिक संस्कार का प्रतीक है। इसे निभाने के लिए न केवल अनुबंध चाहिए, बल्कि इच्छाशक्ति भी। साझेदारी की नई सियासत तभी सफल होगी जब वह पुराने भ्रमों और नए भरोसे के बीच सही संतुलन बना पाए।