बर्नआउट का संकट : कॉर्पोरेट दुनिया में सिसकती संवेदनाएं


मेट्रो शहरों में सुबह की भीड़ में धक्का-मुक्की सहती हुई एक युवती जब मेट्रो में चढ़ती है, उसका चेहरा सपाट होता है। आंखों में कोई सपना नहीं, बस अलार्म की घंटी और देर हो जाने की आशंका। उसके कानों में ईयरफोन हैं, मगर मन ऑफिस की उस मीटिंग में अटका है जहाँ उसे आज फिर ‘परफॉर्मेंस’ की समीक्षा झेलनी है। वह लडक़ी आप भी हो सकती हैं, मैं भी, हममें से कोई भी, जो रोज काम पर जाती है।
दरअसल काम की दुनिया अब एक ऐसी दौड़ बन चुकी है जहां जीतने वाला भी थककर गिरता है। कॉर्पोरेट सेक्टर का चमचमाता चेहरा अमूमन उन चेहरों की गवाही है, जो मुस्कराते हुए टूटते हैं। ‘सब ठीक है’ कहना अब एक आदत हो गई है, भले ही भीतर कुछ भी ठीक न हो। यही तो है आज की सबसे बड़ी त्रासदी। हम मानसिक रूप से बीमार होते जा रहे हैं और इसे ‘प्रोफेशनलिज्म’ समझ बैठे हैं।
2023 में मैकिन्से हेल्थ इंस्टीट्यूट (एमएचआइ) की एक रिपोर्ट ने इस दर्द को आंकड़ों में ढाला। भारत में करीब 60 प्रतिशत कर्मचारी कार्यस्थल पर मानसिक थकान, जिसे ‘बर्नआउट’ कहा जाता है, के शिकार हैं। इनमें से आधे से ज्यादा लोगों ने यह स्वीकारा कि वे लगातार तनाव, चिंता और अनिश्चितता के माहौल में जी रहे हैं। एक और सर्वे के मुताबिक, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं की वजह से भारतीय कंपनियां सालाना 1.10 लाख करोड़ रुपए तक का नुकसान झेल रही हैं। लेकिन इस नुकसान को रुपए में मापना आसान है, असल मुश्किल तो वे आंसू हैं जो ऑफिस के वॉशरूम में गिरते हैं बिना आवाज के, बिना गवाह के। दफ्तर अब वो जगह नहीं रही जहां लोग सिर्फ काम करने आते हैं। यह एक ऐसा ‘मनोवैज्ञानिक क्षेत्र’ बन चुका है जहां आत्म-सम्मान, भय, उम्मीदें, प्रतिस्पर्धा और सुरक्षा एक साथ टकराते हैं। जहां आपको हर दिन साबित करना होता है कि आप काबिल हैं चुप रहकर भी, ओवरटाइम करके भी और अपनी भावनाओं को अनदेखा करके भी। जो व्यक्ति अपने घर में संजीदा, संवेदनशील और सहज होता है, वही ऑफिस में ‘प्रोफेशनलिज्म’ के नाम पर कठोर, मशीनी और भावहीन दिखने को मजबूर है। यही तो मानसिक हिंसा की शुरुआत है जो बिना थप्पड़, बिना चीख के है। अब सोचिए, एक ऐसा माहौल जहां आप छुट्टी लेने से डरें, ईमानदारी से गलती मानने में शर्म महसूस करें और अपने ही सहकर्मियों को ‘कंपटीटर’ समझें। क्या वह जगह आपको मानसिक शांति दे सकती है? नहीं! और यह केवल किसी एक कंपनी की कहानी नहीं, यह एक पूरे कॉर्पोरेट समाज की सामूहिक पीड़ा है।
द लिव लव लाफ फाउंडेशन और मैकिन्से की साझेदारी में एक अभियान चलाया गया है, जिसका उद्देश्य कार्यस्थलों में मानसिक स्वास्थ्य पर खुलकर बात करना है। उनका शोध बताता है कि कर्मचारियों की भलाई केवल काउंसलिंग से नहीं आती, बल्कि उससे आती है जब उनके आसपास का माहौल मानवीय होता है, जब उन्हें सुना जाता है, समझा जाता है, और उनके प्रति सहानुभूति रखी जाती है। बॉस की एक आक्रामक टिप्पणी, एक असंवेदनशील ईमेल, या छुट्टी न मिलने की एक घटना किसी कर्मचारी के आत्म-सम्मान को कितनी गहराई तक तोड़ सकती है, यह केवल वही जानता है जो रोज भीतर ही भीतर टूट रहा होता है। ऐसे में दुर्भाग्य यह है कि जब वह टूटता है, तो संस्थान उसके प्रदर्शन पर सवाल उठाती है, लेकिन उसके मानसिक स्वास्थ्य पर नहीं।
डेलॉइट की रिपोर्ट बताती है कि 33 फीसदी युवा कर्मचारी मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों का सामना कर रहे हैं, जबकि 80 प्रतिशत ने कभी अपनी परेशानी शेयर नहीं की। क्योंकि डर है कि लोग उन्हें ‘कमजोर’ समझेंगे। इस समाज में, जहाँ ‘वर्कहॉलिक होना गर्व की बात मानी जाती है और ‘ब्रेक’ लेना आलस्य का प्रतीक, वहां मानसिक थकावट को कब जगह मिलेगी? तो क्या समाधान है? क्या कॉर्पोरेट्स को सिर्फ ‘वर्क फ्रॉम होम’ या ‘फ्लेक्सिबल आवर्स’ देने से ये समस्याएं खत्म हो जाएंगी? शायद नहीं। मानसिक स्वास्थ्य को एक नीतिगत प्राथमिकता बनाना होगा। जैसे ऑफिस में फायर सेफ्टी ड्रिल होती है, वैसे ही ‘इमोशनल वेलनेस’ सेशन भी अनिवार्य होने चाहिए। जैसे मानव संसाधन (एचआर) पॉलिसी में छुट्टियां, प्रमोशन, वेतन का उल्लेख होता है, वैसे ही मेंटल हेल्थ डे की भी बात होनी चाहिए। लेकिन सबसे बड़ा परिवर्तन तब आएगा जब नेतृत्व स्तर पर बैठे लोग सीईओ, मैनेजर, सीनियर अधिकारी स्वयं मानसिक स्वास्थ्य की महत्ता को स्वीकारें और अपनाएं। जब बॉस मीटिंग में केवल टारगेट्स नहीं, इंसानियत भी बांटेगा। जब कोई मैनेजर अपने अधीनस्थ से पूछेगा ‘तुम कैसा महसूस कर रहे हो?’ तो यही एक प्रश्न कई बार जीवन बदल सकता है। यहां एक बात और महत्त्वपूर्ण है हम सभी को यह समझना होगा कि मानसिक स्वास्थ्य कोई ‘निजी’ समस्या नहीं है। यह एक सामूहिक जिम्मेदारी है। जिस तरह एक बीमार शरीर दफ्तर के प्रदर्शन को प्रभावित करता है, उसी तरह एक बीमार मन भी पूरे कार्य-पर्यावरण को विषैला बना सकता है। यदि किसी एक व्यक्ति को लगातार अनदेखा किया जाता है, तो उसकी चुप्पी धीरे-धीरे पूरे माहौल को जहरीला बना सकती है।
कभी-कभी मानसिक पीड़ा की शुरुआत छोटी-छोटी बातों से होती है जैसे कि योगदान के बावजूद मान्यता न मिलना, ऑफिस पॉलिटिक्स में फंसना या लगातार यह महसूस करना कि आप ‘अदृश्य’ हैं। यह छोटी-छोटी अस्वीकृतियां धीरे-धीरे आत्म-संदेह में बदल जाती हैं। और आत्म-संदेह ही वह सुरंग है, जिसमें उम्मीद की रोशनी सबसे पहले बुझती है। इसलिए जरूरी है कि हम कार्यस्थलों को केवल टारगेट ओरिएंटेड न बनाएं, बल्कि ‘टच-ह्यूमन’ बनाएं। जहां लोग मुस्कुराते हुए आएं, सिर उठाकर बोलें, और लौटते समय सिर्फ थके न हों बल्कि संतुष्ट भी हों। एक ऐसा ऑफिस, जहां ‘डेडलाइन’ के साथ ‘लाइफलाइन’ की भी चिंता की जाए और सबसे बड़ी बात हम एक-दूसरे को इंसान समझना शुरू करें। एक सहकर्मी यदि चुप है, तो जरूरी नहीं कि वह असामाजिक है शायद वह अंदर से बिखर रहा हो। किसी का बार-बार छुट्टी लेना आलस्य नहीं, मदद की पुकार हो सकता है। किसी की चिड़चिड़ाहट अयोग्यता नहीं, अवसाद का रूप हो सकती है। आज का समय हमसे केवल काम नहीं, समझ भी मांग रहा है और अगर हम वाकई एक बेहतर कार्यस्थल बनाना चाहते हैं, तो हमें मानसिक स्वास्थ्य को केवल एचआर सत्र की विषयवस्तु नहीं, जीवन के केंद्र में रखना होगा। क्योंकि जब मन ही स्वस्थ नहीं, तो लक्ष्य कैसे पूरे होंगे?
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