सहयोग से समाधान : सहकारिता के माध्यम से वैश्विक और सामाजिक समस्याओं का निकल सकता हल


आज का युग वह समय है जब अकेले चलने की क्षमता से अधिक, मिल-जुलकर साथ चलने की समझ और शक्ति की आवश्यकता है। सहकारिता केवल एक सामाजिक मूल्य नहीं, बल्कि समृद्धि, न्याय और स्थायित्व की नींव है। हर वर्ष जुलाई के पहले शनिवार को अंतरराष्ट्रीय सहकारिता दिवस मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य यह है कि पूरी दुनिया को सहयोग आधारित संगठनों के महत्त्व और प्रभाव से परिचित करवाया जा सके । भारत की सांस्कृतिक आत्मा में सदियों से ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ जैसी भावना बसी हुई है, आज सहयोग के इस वैश्विक आंदोलन में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है। भारत जैसे असंगठित बाजार व्यवस्था में सहकारिता का महत्त्व बढ़ जाता है, क्योंकि एक जगह विभिन्न सेवाओं और इकाइयों को केंद्रीकृत व्यवस्था मिल जाती है। यह गरीबों को रोजगार और वस्तुओं/सेवाओं के जरूरतमंदों को उनकी उपलब्धता सुनिश्चित करती है। भारत में दुग्ध के मामले में अमूल सहकारिता संगठन एक स्वर्णिम उदाहरण प्रस्तुत करता है, जिसने देश के कोने-कोने तक अपने उत्पाद को पहुँचाने वाला सहकारिता आंदोलन खड़ा कर दिया है।
सहयोगिता का अर्थ है, ऐसा ढांचा, जिसमें लोग समान हितों के लिए मिलकर कार्य करते हैं। यह सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करता है, आर्थिक न्याय को बढ़ावा देता है और लोकतांत्रिक मूल्यों को व्यावहारिक बनाता है। वर्ष 2025 की थीम, ‘सहकारिता: सभी के लिए एक बेहतर भविष्य का निर्माण’ इस बात पर बल देती है कि सहकारिता केवल आर्थिक समृद्धि तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक बदलाव और सामूहिक भविष्य के निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह थीम सहकारी संगठनों को समावेशी विकास, पर्यावरणीय स्थिरता और वैश्विक चुनौतियों के समाधान के लिए मिलकर काम करने के लिए प्रेरित करती है। इसका उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि सहकारिता एक ऐसा सशक्त माध्यम है, जो सभी के लिए एक बेहतर, न्यायपूर्ण और स्थायी भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, जहां समुदाय मिलकर अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए साझा लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। आज जब वैश्विक प्रतिस्पर्धा अपनी चरम सीमा पर है, तब सहयोग पर आधारित संस्था न केवल मानवता को जोड़ती हैं बल्कि संसाधनों के न्यायपूर्ण बँटवारे की संरचना भी जरूरी हो गई है। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि दुनिया भर में सहकारी संगठनों की भूमिका को सराहा जाए, स्थानीय उद्यमिता को बढ़ावा दिया जाए, सामाजिक न्याय को मजबूती मिले और समान अवसरों का विस्तार हो।
आज के भारत में सहकारिता केवल एक प्रणाली नहीं, बल्कि एक आंदोलन है। यह आंदोलन ‘आत्मनिर्भर भारत’ के निर्माण में एक मजबूत आधार बन चुका है। सरकार द्वारा घोषित योजनाओं और डिजिटल सहकारी ढांचों ने इसे और अधिक संगठित और पारदर्शी बनाया है। सहकारिता न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन का माध्यम है, बल्कि यह महिलाओं, अनुसूचित जाति/जनजातियों और कमजोर तबकों को मुख्यधारा में लाने का शक्तिशाली औजार बन चुकी है। महिला स्व-सहायता समूहों के रूप में काम करने वाली सहकारी संस्थाओं ने लाखों घरों की आर्थिक रीढ़ बनकर उन्हें आत्मनिर्भरता की राह पर अग्रसर किया है। कोविड-19 महामारी के दौरान जब वैश्विक अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी, तब भारत की कई स्थानीय सहकारी संस्थाओं ने राहत कार्यों में महत्त्वपूर्ण निभाई। राशन वितरण, स्वास्थ्य सेवाएँ, स्वदेशी उत्पादों का निर्माण और आपसी सहयोग की भावना ने साबित कर दिया कि आपदा में सहयोग ही सबसे कारगर समाधान है।
सहकारिता क्षेत्र को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें राजनीतिक हस्तक्षेप प्रमुख है, जिससे लोकतांत्रिक ढांचा कमजोर होता है और भ्रष्टाचार व भाई-भतीजावाद बढ़ता है। इसके अतिरिक्त, प्रशिक्षित नेतृत्व और आधुनिक प्रबंधन की कमी के कारण संस्था पुराने तरीकों पर चल रही हैं, जिससे तकनीकी ज्ञान, लेखा प्रबंधन और जवाबदेही का अभाव है। डिजिटलीकरण का अभाव भी एक बड़ी बाधा है; अधिकांश समितियां अब भी कागजी कार्यप्रणाली पर निर्भर हैं, जिससे पारदर्शिता और सूचना का प्रवाह बाधित होता है। वित्तीय जवाबदेही की कमी के कारण लेखा-परीक्षण लंबित रहते हैं और धन के दुरुपयोग की आशंका बनी रहती है, जिससे सदस्यों का विश्वास टूटता है। अंत में, सामाजिक बहिष्करण एक चिंता का विषय है, जहां जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं, जिससे महिलाएं और हाशिये पर पड़े समुदाय निर्णय प्रक्रिया से बाहर रह जाते हैं। इन तमाम चुनौतियों के बावजूद, उम्मीद अब भी कायम है। भारत सरकार ने सहकारिता मंत्रालय की स्थापना, डिजिटल सहकारी बैंकिंग प्रणाली, और प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों के सशक्तीकरण जैसे कई कदम उठाए हैं। यदि इन पहलों को राज्य सरकार और स्थानीय नेतृत्व के समन्वय से जमीन पर उतारा जाए, तो न केवल सहकारी संस्थाएं पुनर्जीवित होगी, बल्कि भारत का विकास अधिक समावेशी और टिकाऊ बनेगा।
इस प्रकार, सहयोगिता केवल एक आर्थिक मॉडल नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, समावेशिता और लोकतांत्रिक सहभागिता की जीती-जागती मिसाल है। भारतीय संस्कृति में जो बात सैकड़ों वर्षों से अंतर्निहित रही है-वही आज वैश्विक विमर्श का केंद्र बन चुकी है। जब दुनिया जलवायु परिवर्तन, असमानता और आर्थिक अस्थिरता जैसी चुनौतियों से जूझ रही है, तब सहयोगिता की भावना ही मानवता को सच्ची दिशा दे सकती है।
विश्व सहभागिता दिवस हम सबको यह याद दिलाता है कि दुनिया को आगे ले जाने के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि सहयोग की आवश्यकता है। भारत इस दिशा में न केवल एक सहभागी देश है, बल्कि एक प्रेरणादायक मार्गदर्शक भी बन सकता है। यदि हमें वास्तव में समावेशी और न्यायसंगत समाज की ओर बढ़ना है, तो ‘मैं’ से ‘हम’ की ओर बढ़ना होगा। और यह यात्रा-सहयोग के मजबूत पंखों पर सवार होकर ही संभव है।
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