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इमोजी की सार्थकता तभी जब भाव के अनुकूल हो

– मेघा राठी, स्वतंत्र लेखिका एवं स्तंभकार

जयपुरJul 03, 2025 / 07:46 pm

Sanjeev Mathur

वर्तमान डिजिटल युग में संवाद का स्वरूप जितनी तेजी से बदला है, उतनी ही तेजी से उसकी गंभीरता और संवेदनशीलता में भी गिरावट आई है। सोशल मीडिया पर विचार, अनुभव, लेख और सूचनाएं जितनी शीघ्रता से पढ़ी जाती हैं, उससे कहीं अधिक जल्दी वे प्रतीकों में बदलकर प्रतिक्रिया पा लेती हैं। ऐसे में यह सोचना स्वाभाविक है कि क्या अब भावनाएं और सोच भी प्रतीकों के हवाले होती जा रही हैं? आज सबसे अधिक देखा जाने वाला प्रतीक है- दिल का चिह्न। कभी प्रेम, अपनत्व और भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक रहा यह चिह्न अब लगभग हर विषय पर प्रतिक्रिया का साधन बन चुका है। चाहे कोई आध्यात्मिक विचार हो, जीवन का संघर्ष हो, सामाजिक असमानता की पीड़ा हो या किसी की मृत्यु की सूचना- प्रतिक्रिया वही रहती है। यह एक तरह का ‘सब-कुछ-के-लिए-एक-जवाब’ बन गया है, जिससे विषय की गंभीरता और संवेदना के साथ न्याय नहीं हो पाता। यह प्रवृत्ति केवल सामाजिक मीडिया तक सीमित नहीं है। अब लोग कार्यालयीन संवाद, ईमेल और वरिष्ठ अधिकारियों के संदेशों में भी इमोजी का प्रयोग करने लगे हैं। यह भाषा और व्यवहार में आई एक अनौपचारिकता को दर्शाता है, जो कभी-कभी अनुशासनहीनता या असंवेदनशीलता की श्रेणी में भी आ सकता है। विशेषकर तब, जब संवाद औपचारिक हो या किसी विचारशील मंच का हिस्सा हो, वहां प्रतीकों का प्रयोग विचार के स्थान पर मात्र उपस्थिति दर्ज कराने का माध्यम बन जाता है।
दरअसल, इमोजी का प्रयोग स्वाभाविक रूप से तब सार्थक होता है जब वह विषय के भाव के अनुकूल हो। मित्रता, स्नेह, सहानुभूति या निजी बातचीत में उसका स्थान उचित हो सकता है, लेकिन जब विषय तर्कसंगत, दार्शनिक या गहन सामाजिक संवेदना से जुड़ा हो, तब प्रतीकों से प्रतिक्रिया देना उस विचार की गरिमा को कम कर सकता है। यह न केवल लेखक या प्रस्तुतकर्ता के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है, बल्कि पाठक या दर्शक की मानसिक तैयारी और प्रतिक्रिया की परिपक्वता पर भी प्रश्न खड़े करता है। सोशल मीडिया ने संवाद को सहज और त्वरित बना दिया है, लेकिन इस सुविधा ने विचारशीलता की कीमत पर गति को प्राथमिकता दी है। आज प्रतिक्रियाएं सोच से अधिक तेज और कभी-कभी सोच के बिना दी जा रही हैं। यह स्थिति भाषा की शक्ति और भाव की गहराई को कमजोर करती है। यह समझना आवश्यक है कि प्रतिक्रिया देना केवल तकनीकी क्रिया नहीं, बल्कि एक सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी है। ऐसे समय में जबकि सोशल मीडिया विचारों के प्रचार, जनमत निर्माण और भावनाओं की साझेदारी का एक सशक्त मंच बन चुका है, यह आवश्यक हो गया है कि संवाद में शिष्टाचार, विवेक और विषयानुकूलता की मर्यादा बनी रहे। इमोजी जैसे प्रतीकों का प्रयोग यदि विवेक के साथ किया जाए, तो वे संवाद को सरल और प्रभावी बना सकते हैं, लेकिन यदि वे केवल आदत या सुविधा के चलते प्रयुक्त हों, तो वे संवाद की गंभीरता और गरिमा को प्रभावित कर सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यह भी ध्यान देने योग्य है कि तकनीक ने संवाद को सशक्त बनाया है, किंतु वही संवाद तब प्रभावहीन हो जाता है जब वह केवल संकेतों में सिमट जाए।
एक विवेकपूर्ण टिप्पणी, एक विचारोत्तेजक प्रतिक्रिया या एक भावनात्मक सहमति, किसी भी इमोजी से अधिक प्रभावशाली होती है। यह आवश्यक है कि हम डिजिटल साधनों का प्रयोग करते हुए मानवीय समझ, भाषिक गरिमा और भावनात्मक गहराई को प्राथमिकता देना न भूलें। आज यह सोचने का समय है कि हम अपनी प्रतिक्रियाओं से क्या संप्रेषित कर रहे हैं- सहभागिता या केवल उपस्थिति? संवेदना या केवल एक प्रतीक? संवाद की वास्तविक शक्ति भाषा में निहित है, और जब तक हम भाषा की गरिमा, भावों की गहराई और विचारों की स्पष्टता को महत्व नहीं देंगे, तब तक डिजिटल संवाद केवल त्वरित आदान-प्रदान बनकर रह जाएगा, न कि वास्तविक अभिव्यक्ति का माध्यम।

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