भारत-पाकिस्तान तनाव के बीच ये सीमा प्रहरी चट्टान की तरह अपने मोर्चों यानी गांवों में डटे रहे। इन गांवों में कोई चेतावनी की घंटी नहीं बजती, लेकिन जब हवा का रुख बदले, कोई संदेहास्पद चेहरा दिा या पशुओं की चहलकदमी असामान्य लगने लगी तो सबसे पहले संकेत देने का काम भी किया। बीकानेर के बज्जू क्षेत्र में युवाओं ने तो खुद का कंट्रोल रूम बना लिया। चौबीसों घंटे निगरानी, रेड और ग्रीन अलर्ट की सूचना, सायरन की व्यवस्था, यह सब अपने बूते किया। जैसलमेर, बाड़मेर के सरहदी गांवों की बात हो या बीकानेर के खाजूवाला, बज्जू जैसे इलाकों में रहने वाला आम ग्रामीण जनजीवन। बरसों से ये धोरों पर निगरानी रखते आए हैं। जब जीपीएस नहीं था, तब भी ये ग्रामीण हवा के रुख से दुश्मन की आहट का अंदाज लगा लेते थे। अब भी इन गांवों में कुछ नहीं बदला है। गांव-गांव में रात्रिकालीन गश्त सामूहिक रूप से चल रही है। बिना किसी आदेश के, बिना किसी पारिश्रमिक के।
ऑपरेशन सिंदूर के बाद जब हाल ही सीमा पर हलचल बढ़ी, तो कई गांवों से ऐसी खबरें आई, जहां युवाओं ने बुजुर्गों के निर्देशन में स्वयंसेवकों की टोली बनाई, जो रात के समय खेतों और सीमाई रास्तों की निगरानी में जुट गई। इस टोली के पास न कोई वर्दी थी, न हथियार, लेकिन उनमें जो हौसला है, वह सेना के जवानों की माफिक ही नजर आया। हालिया ब्लैक आउट की स्याह रातों में भी हमारे सरहदी जीवन का यह जीवट उभरकर सामने आया। सच ही है, जब देश की सुरक्षा का सवाल उठता है, तब केवल सेना ही नहीं, ये आंखें भी हथियार बन जाती हैं। इनके भरोसे ही सीमाएं सुरक्षित रहती हैं। बिना कोई शोर किए, बिना किसी मान्यता की अपेक्षा किए। क्योंकि सरहद पर सिर्फ बंदूकें नहीं, आंखें भी तैनात होती हैं।