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ट्रंप का दबाव: भारत के सामने क्या हैं चुनौतियां

डॉ. अभिजीत दास , इंटरनेशनल ट्रेड एक्सपर्ट

जयपुरJul 30, 2025 / 03:43 pm

Shaily Sharma

1 अगस्त की समयसीमा नजदीक आ रही है। यह तारीख उन देशों के लिए निर्णायक है, जो अमेरिका के साथ व्यापार समझौतों के जरिए पारस्परिक आयात शुल्कों को कम करने या उनसे बचने की कोशिश में हैं। दुनियाभर की सरकारें और व्यापार विशेषज्ञ अब यह जानने को आतुर हैं कि किन देशों को रियायतें मिलेंगी और राष्ट्रपति ट्रंप उन देशों पर कैसे शुल्क लगाएंगे, जो अमेरिका से समझौता नहीं कर पाएंगे।
28 जुलाई तक राष्ट्रपति ट्रंप ब्रिटेन, वियतनाम, इंडोनेशिया, जापान, फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय संघ के साथ व्यापारिक समझौतों की घोषणा कर चुके हैं। हालांकि, इन समझौतों की बारीकियों पर अभी और बातचीत बाकी है। भारत के साथ एक अंतरिम समझौता लगभग अंतिम चरण में है। तो समझते हैं कि अब तक जो समझौते हुए हैं, उनकी क्या विशेषताएं हैं और भारत के लिए इनके क्या निहितार्थ हो सकते हैं?
अब तक जिन समझौतों पर सहमति बनी है, वे लगभग पूरी तरह अमेरिका को एकतरफा रियायतें देने वाले हैं।

साझेदार देशों ने अमेरिकी उत्पादों पर आयात शुल्क समाप्त करने पर सहमति दी है, जबकि अमेरिका ने अब भी अपने ‘देश-विशेष’ के आधार पर लगाए गए पारस्परिक शुल्क बनाए रखे हैं। हालांकि ये शुल्क 2 अप्रैल को घोषित दरों से कुछ कम हैं, फिर भी इसमें स्पष्ट असंतुलन है। ब्रिटेन (10%), वियतनाम (20%), इंडोनेशिया (19%), जापान (15%), फिलीपींस (19%) और यूरोपीय संघ (15%) पर शुल्क लागू किए गए हैं। स्पष्ट है कि अमेरिका अपने व्यापारिक हितों को सर्वोपरि रखते हुए अन्य देशों से अधिकाधिक रियायतें लेने की नीति पर चल रहा है। इस क्रम में देशों के बीच कम शुल्क हासिल करने की होड़ भी दिखती है। इससे ट्रंप ने कई देशों को अपने लंबे समय से चले आ रहे रुख को बदलने पर मजबूर कर दिया है।
दशकों से विरोध के बावजूद ऑस्ट्रेलिया ने अमेरिकी बीफ के लिए बाजार खोला और जापान ने अमेरिकी चावल के आयात को मंजूरी दी।

कुछ समझौतों में देशों ने अमेरिकी उत्पादों की निश्चित मात्रा में खरीद या अमेरिका में निवेश की भी प्रतिबद्धता जताई है। उदाहरण के लिए, इंडोनेशिया ने अमेरिका से विमान, कृषि उत्पाद, तरलीकृत पेट्रोलियम गैस, कच्चा तेल और पेट्रोल जैसे 23 अरब डॉलर मूल्य के उत्पाद खरीदने पर सहमति दी है। वहीं जापान ने अमेरिका में 500 अरब डॉलर का निवेश फंड बनाने का वादा किया है, जिससे होने वाले लाभ का 90 प्रतिशत अमेरिका को मिलेगा। इससे स्पष्ट होता है कि अमेरिका न केवल व्यापार संतुलन सुधारना चाहता है, बल्कि आर्थिक प्रभुत्व भी स्थापित करना चाहता है। अमेरिका के साथ बातचीत की प्रक्रिया में कोई स्थिरता या पूर्वानुमान नहीं दिखते। कई बार जो बातें अधिकारियों और मंत्रियों के स्तर पर तय हुईं, उन्हें ट्रंप ने अंतिम समय में बदल दिया। एक मामले में अमेरिकी अधिकारियों ने किसी देश के लिए 11 प्रतिशत शुल्क पर सहमति दी थी, लेकिन ट्रंप ने उस देश के शीर्ष नेता से बात कर उसे 20 प्रतिशत घोषित कर दिया। चूंकि वह नेता बातचीत की प्रक्रिया में सीधे शामिल नहीं था, इसलिए वह ट्रंप के इस एकतरफा बदलाव का विरोध भी नहीं कर सका।
यह घटनाक्रम दर्शाता है कि अमेरिका के साथ समझौता करना केवल तकनीकी या व्यापारिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि राजनीतिक शक्ति-प्रदर्शन से भी संचालित है जो समझौतों को अस्थिर और असमान बना देता है।

इससे भारत के लिए स्पष्ट संकेत है कि अमेरिका उस पर भी एकतरफा रियायतों का दबाव बनाए रखेगा। भारत को अपने कई पुराने रुख छोड़ने पड़ सकते हैं। इसके तहत भारत को अमेरिकी कृषि उत्पादों यथा– सेब, गेहूं, मक्का, सोयाबीन, पोल्ट्री, डेयरी आदि पर आयात शुल्क शून्य करने और इनके लिए अपने बाजार खोलने पड़ सकते हैं। धान, गेहूं आदि की न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति में बदलाव की मांग की जा सकती है। जेनेटिकली मॉडिफाइड उत्पादों के लिए अमेरिकी पहुंच की मंजूरी मांगी जा सकती है। ये सभी कदम भारतीय किसानों के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं। भारत पर दबाव डाला जा सकता है कि वह अपने पेटेंट कानूनों में बदलाव करे, ताकि दवाओं पर पेटेंट की अवधि बार-बार बढ़ाई जा सके। इससे भारत का जेनेरिक दवा उद्योग तबाह हो जाएगा और गरीबों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं बेहद महंगी हो जाएंगी।

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