scriptसोशल : आधुनिकता के साये में बिखरता मानवीय संवाद | Social | Patrika News
ओपिनियन

सोशल : आधुनिकता के साये में बिखरता मानवीय संवाद

डॉ. शिवम भारद्वाज, असिस्टेंट प्रोफेसर, जीएलए विश्वविद्यालय, मथुरा

जयपुरJun 03, 2025 / 05:47 pm

Neeru Yadav

मनुष्य जन्म से ही सामाजिक प्राणी रहा है। उसकी चेतना, विचार और अस्तित्व की संपूर्ण परिणति परस्पर संबंधों की उस बुनियाद पर टिकी है, जिसे हम समाज कहते हैं। किंतु 21वीं सदी की तकनीकी आधुनिकता के बीच एक मूक संकट गहराता जा रहा है—सामाजिक अलगाव। यह अकेलेपन से कहीं बढ़कर है। यह संकट केवल किसी के अकेले रहने तक सीमित नहीं है; यह उस भावनात्मक और मानसिक दूरी का द्योतक है, जो व्यक्ति को उसके परिवार, समुदाय और अंततः स्वयं से भी काट देती है। यह वह मूक महामारी है जो न केवल जीवन की गुणवत्ता को छीन रही है, बल्कि मनुष्य की सामाजिक आत्मा को भी निस्तेज कर रही है।
आज हम जिस युग में जी रहे हैं, वह सुविधाओं और संसाधनों की दृष्टि से अभूतपूर्व है। विज्ञान ने दूरी को समाप्त कर दिया है, तकनीक ने संवाद को तात्कालिक बना दिया है, और वैश्वीकरण ने सांस्कृतिक विविधताओं को निकट ला दिया है। फिर भी यह विडंबना ही है कि इसी तकनीकी समृद्धि और भौतिक उन्नति के बीच मनुष्य पहले से कहीं अधिक अकेला, खिन्न और भावशून्य होता चला जा रहा है। महानगरों की भीड़ में यह एकाकीपन, सोशल मीडिया के ‘लाइक्स’, ‘कमेंट्स’, ‘शेयर्स’ और ‘रीट्वीट्स’ के पीछे छिपी असली संवादहीनता, और आत्मकेंद्रित जीवनशैली की यह परछाई अब सामान्य सामाजिक अनुभव बन चुकी है।
आजकल संवाद की जगह इमोजी ने ले ली है। ‘दिल’, ‘हंसती स्माइली’, ‘रोता चेहरा’ या ‘थम्ब्स अप’ अब भावनाओं के प्रतीक बन गए हैं—परंतु ये प्रतीक उस आत्मीयता और गहराई को नहीं उभार पाते, जो किसी व्यक्ति की आंखों में झांककर कही गई बात या कंधे पर रखे हाथ से व्यक्त सहानुभूति में होती है। मनुष्य ने संप्रेषण को सरल तो कर लिया है, लेकिन उस सरलता की कीमत पर उसने संबंधों की जटिलता, गरिमा और आत्मीयता खो दी है। एक क्लिक में प्रतिक्रिया देना सहज है, पर किसी के साथ बैठकर उसके मौन को समझना, आज सबसे कठिन हो गया है।
शहरीकरण और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने जहां एक ओर आर्थिक अवसरों का विस्तार किया, वहीं दूसरी ओर इससे उत्पन्न जीवन की गति, व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा और गतिशीलता ने पारिवारिक संरचनाओं को छिन्न-भिन्न कर दिया। संयुक्त परिवारों का विघटन और एकल परिवारों की वृद्धि केवल सांख्यिकीय तथ्य नहीं है, बल्कि यह उस सामाजिक परिवेश का संकेत है जहाँ सजीव संबंधों के स्थान पर औपचारिकता, दूरी और उपेक्षा ने घर कर लिया है। अब परिवार केवल ‘रहने की जगह’ रह गया है, वह ‘जीने की जगह’ नहीं रहा। संवाद, जो कभी जीवन का स्वाभाविक अंग था, अब ‘समय निकालकर’ किया जाने वाला कार्य बन गया है।
तकनीकी माध्यमों ने संवाद को सहूलियत भरा तो बना दिया, पर मानवीय गहराई से विहीन भी। एक व्यक्ति जिसके सोशल मीडिया पर सैकड़ों मित्र हैं, वह वास्तविक जीवन में किसी एक भरोसेमंद सहचर को तरसता है। ‘कनेक्टिविटी’ के इस युग में संवाद सतही और यांत्रिक हो चला है। ‘हैलो’, ‘कैसे हो’, ‘सॉरी’, ‘थैंक्स’ जैसी औपचारिकताओं ने आत्मीय स्पर्श को विस्थापित कर दिया है। डिजिटल माध्यम ने संवाद को सरल किया है, परंतु उसकी आत्मा छीन ली है।
इस सामाजिक एकाकीपन का प्रभाव केवल भावनात्मक नहीं, गहन रूप से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी परिलक्षित होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और अनेक अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थानों ने यह प्रतिपादित किया है कि दीर्घकालिक सामाजिक अलगाव रक्तचाप, अनिद्रा, अवसाद, स्मृति ह्रास और आत्महत्या की प्रवृत्तियाँ आदि से सीधे तौर पर जुड़ता है। शोध बताते हैं कि सामाजिक अलगाव के कारण मृत्यु का जोखिम धूम्रपान, मोटापा और नशे की लत जितना ही घातक हो सकता है। यह एक मानसिक बीमारी नहीं बल्कि एक सामाजिक व्याधि है जो समाज की बुनियादी संरचना को क्षीण कर रही है।
कोविड-19 महामारी ने इस प्रवृत्ति को और भी विकराल बना दिया। शारीरिक दूरी की अनिवार्यता ने लोगों को उस संवादहीनता के अंधकार में और गहरे धकेल दिया, जहाँ अकेलापन केवल एक असुविधा नहीं, पीड़ा बन गया। वास्तविकता यह है कि मनुष्य के लिए सामाजिक संपर्क केवल सुविधा नहीं, आवश्यकता है। यह वह ‘ऑक्सीजन’ है जिससे उसकी सामाजिक चेतना जीवित रहती है।
इस संकट का सबसे दुखद पहलू यह है कि इसका प्रभाव समाज के प्रत्येक वर्ग पर है-वृद्धजन जो पारिवारिक संवाद से वंचित हो गए हैं; युवा जो केवल डिजिटल दुनिया में ही अपनी पहचान खोजते हैं; कामकाजी वर्ग जो केवल उत्पादकता के पैमाने पर आंका जाता है; और यहाँ तक कि बच्चे जिनका सामाजिक विकास अब स्क्रीन के दायरे में सिमट गया है। यह सामाजिक विकलता धीरे-धीरे उस लोकतांत्रिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रही है, जिसकी आत्मा सहभागिता, संवाद और सहिष्णुता पर टिकी होती है। एकाकी व्यक्ति असुरक्षा, भय और संदेह की गिरफ्त में आकर अतिवादी विचारधाराओं या षड्यंत्र-प्रवृत्तियों की ओर आकृष्ट हो सकता है।
यह संकट केवल व्यक्तिगत प्रयासों से हल नहीं होगा। इसकी जड़ें जीवनशैली, शैक्षिक व्यवस्था, कार्य संस्कृति और नीतियों में गहराई तक फैली हैं। इसके समाधान हेतु बहुपरतीय और सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं। सबसे पहले, हमें संवाद को जीवन का केंद्र बनाना होगा, न कि उसका परित्यक्त उपांग। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में सामाजिक व्यवहार, सहानुभूति, भावनात्मक बुद्धिमत्ता और संवाद कौशल को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाना होगा। कार्यस्थलों पर मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हुए सहकर्मियों के बीच संवाद-संवेदन की संस्कृति को बढ़ावा देना होगा।
सार्वजनिक स्थलों—पार्कों, पुस्तकालयों, सांस्कृतिक केंद्रों—का पुनर्जीवन सामाजिक सम्पर्क के नए केंद्र बन सकता है। स्थानीय निकायों को सामूहिक गतिविधियों का आयोजन करना चाहिए—जैसे साहित्यिक गोष्ठियां, सांस्कृतिक उत्सव, समूह-योग या सामुदायिक सेवा। डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग भी सामूहिकता के लिए किया जा सकता है, बशर्ते वह वास्तविक संवाद को बढ़ावा दे न कि पलायनवाद को।
कई विकसित देशों ने इस दिशा में पहल की है। ब्रिटेन ने ‘मिनिस्टर फॉर लोनलीनेस’ की नियुक्ति कर इस विषय को नीतिगत प्राथमिकता दी। जापान ने भी सामाजिक एकाकीपन को सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट मानते हुए सरकारी स्तर पर रणनीतियाँ बनाई हैं। भारत जैसे विविधतापूर्ण और सामाजिक रूप से जीवंत देश को यदि इस संकट से जूझना है, तो उसे अपने पारंपरिक संबंधों की पुनर्रचना करनी होगी—वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को फिर से जीवन में उतारना होगा।
अंततः, यह केवल एक सामाजिक समस्या नहीं है; यह उस सभ्यता का संकट है जो अपने संवादहीन, भावशून्य, और तकनीकपरस्त भविष्य की ओर बढ़ रही है। यदि समाज को जीवित, प्रासंगिक और सशक्त बनाना है, तो व्यक्ति को अपने दायरे से निकलकर दूसरे की उपस्थिति, पीड़ा और संवेदना को समझना होगा। संवाद केवल शब्दों का आदान-प्रदान नहीं, आत्मा का स्पर्श है। और यही स्पर्श हमें फिर से जोड़ सकता है—एक दूसरे से, समाज से, और स्वयं से।
जरूरी है कि हम उस मौन को सुनें, जो हमारे चारों ओर पसरा है। किसी के पास बैठ जाना, किसी की बात को गंभीरता से सुन लेना, किसी के दुख में शामिल हो जाना—ये छोटे से प्रयास इस गहरी खाई को पाटने के लिए क्रांतिकारी हो सकते हैं। क्योंकि मनुष्य का जीवन केवल जीने का नहीं, साथ जीने का नाम है। सामाजिक अलगाव की इस अदृश्य महामारी के विरुद्ध हमारी सबसे प्रभावशाली औषधि भी यही है—संवेदना का पुनर्जागरण।

Hindi News / Opinion / सोशल : आधुनिकता के साये में बिखरता मानवीय संवाद

ट्रेंडिंग वीडियो