दक्षिण एशिया में भारत व पाकिस्तान जैसी दो न्यूक्लियर शक्तियां एक झड़प से बाहर तो आ चुकी हैं परन्तु अभी शांति की संभावनाएं नजर नहीं आ रही हैं। इसके विपरीत अमरीका डॉनल्ड ट्रंप के नेतृत्व में टैरिफ नीतियों के जरिए दुनिया में नाराजगी बढ़ाने का काम तो कर ही रहा है, साथ ही भ्रम की स्थिति भी उत्पन्न कर रहा है, जिसके चलते नियम आधारित व्यवस्था (रूल बेस्ड ऑर्डर) काफी दबाव में है। ऐसे में सिंगापुर में शांग्री-ला रक्षा सम्मेलन में अमरीका का चीन पर हमला, यूरोप का तमाम संकोचों के बावजूद अमरीका के साथ संशय के साथ खड़े दिखने की कोशिश और रक्षा खर्च बढ़ाने के लिए आसियान देशों पर अमरीकी दबाव क्या संकेत करता है?
शांग्री-ला डायलॉग में चीन को लेकर सबसे प्रभावशाली बयान अमरीकी रक्षा मंत्री पीट हेगसेथ का रहा। उन्होंने एक प्रकार से यह चेतावनी दी कि चीन से खतरा वास्तविक और संभावित रूप से निकट है। इसके साथ उन्होंने यह भी कहा कि ताइवान पर चीन का कोई भी हमला इंडो-पैसिफिक के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए विनाशकारी परिणाम लाने वाला साबित हो सकता है। इसमें तो किसी को कोई संशय है ही नहीं, लेकिन अमरीका क्या कर रहा है? क्या अमरीका इन एशियाई देशों की रक्षा का दायित्व ग्रहण कर रहा है अथवा वह उन्हें डराकर अपने हथियार ही बेचना चाह रहा है? यह सही है कि ताइवान चीन के निशाने पर है और चीन प्राय: बलपूर्वक ‘पुन: एकीकृत’ करने की धमकी भी देता रहता है। चीन दक्षिण चीन सागर में जिस प्रकार की गतिविधियां चला रहा है उसे इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ आर्बीटेशन भी उसके खिलाफ अपना फैसला सुना चुका है लेकिन चीन दूसरी बड़ी आर्थिक ताकत और बड़ी सैन्य शक्ति बन कर अहमन्यतावादी हो चुका है इसलिए वह कोर्ट का आदेश नहीं मानता। यही कारण है कि फिलीपींस, वियतनाम, ब्रूनेई, ….आदि देश चीन की आक्रामक और विस्तारवादी नीति के शिकार हो रहे हैं। लेकिन एशियाई देशों द्वारा हथियार खरीदना तो इसका उत्तर नहीं हो सकता।
शांग्री-ला डायलॉग एशिया का प्रमुख रक्षा सम्मेलन है। इसलिए एशियाई फोरम पर वैश्विक शक्तियां जब सवाल उठाती हैं तो उन्हें यूं ही तो नहीं छोड़ा जा सकता। फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रो ने भी शांग्री-ला डायलॉग में कमोबेश अमरीका का समर्थन किया। यह चीन को स्वीकार्य नहीं। इसलिए चीन की तरफ से कठोर प्रतिक्रिया भी आई। देखने वाली बात यह है कि चीन का ‘ट्रस्ट डेफिसिट’ बढ़ा है इसलिए एशियाई देश कभी अमरीका की तरफ तो कभी यूरोप की तरफ देखते और कुछ हद तक भारत की तरफ भी देखते हैं। हालांकि विकल्प के तौर पर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में शांति, व्यवस्था और नियमबद्ध आचरण के लिए कुछ ‘मिनीलैटरल्स’ बनते दिख रहे हैं। ‘क्वाड’ ऐसा ही एक कदम है। इसके अतिरिक्त जापान, अमरीका और भारत के बीच त्रिकोणीय सहयोग भी बढ़ा है जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने ‘जय’ नाम दिया था। इसके साथ ही भारत, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया के बीच भी वार्ता और सहयोग के आयामों में वृद्धि हुई है।
ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम (यूके) और संयुक्त राज्य (यूएस) के बीच एक त्रिपक्षीय सुरक्षा समझौता (ट्राइलैटरल सिक्योरिटी पैक्ट) यानि ऑकस भी कायम हुआ है जो कि एक सैन्य गठबंधन है। इन पहलों के क्रम में भारत, जापान और फ्रांस के बीच त्रिकोणीय सहयोग का प्रयास भी शामिल है। कुल मिलाकर भारत, अमरीका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, फ्रांस आदि देश इस क्षेत्र में सक्रिय हैं परन्तु अभी चीन के खिलाफ कोई ठोस रणनीति नहीं बनी है। हालांकि इस वार्षिक सम्मेलन के शुरू होने से पहले ही तमाम देशों की निगाहें डॉनल्ड ट्रंप पर जमी हुई थीं कि वे एशियाई देशों को कौन-सा तोहफा देने जा रहे हैं, लेकिन इस दिशा में सोचने से पहले ट्रंप की विदेश नीति पर गौर करने की जरूरत है। अब तक के उदाहरण तो यही बता रहे हैं कि डॉनल्ड ट्रंप अनिश्चिततावादी नीतियों व वैदेशिक संबंधों में अवांछित हलचल लाने के लिए मशहूर रहे हैं।
एक तरफ अमरीकी नेतृत्व चीन की आलोचना करता है, लेकिन दूसरी तरफ वह उन देशों के साथ आर्थिक सम्बंधों की सराहना भी करता है, जो बीजिंग के साथ मजबूत आर्थिक रिश्ते रखते हैं। यानी अमरीका का सैन्य संदेश तो बहुत स्पष्ट है लेकिन आर्थिक दृष्टिकोण भ्रम में डालने वाला है। यही बात अमरीकी साझेदारों के माथे पर चिंता की लकीरें डाल रही है और एशियाई देशों को सचेत कर रही है। शांग्री-ला डायलॉग एशियाई देशों की रक्षा रणनीति में कोई वैल्यू एडीशन कर पाया या नहीं, यह अभी स्पष्ट नहीं है? इमैनुएल मैक्रों ने शुरुआत में ही अमरीका और चीन की ‘कड़े संदेश’ देने की कोशिश की और ‘पुनरुत्थानवादी देशों’ की आलोचना करने की और बीजिंग से कहा कि प्योंगयांग रूस-यूक्रेन युद्ध में शामिल न हो। स्थितियां इतनी सहज नहीं हैं। ‘मेक अमरीका ग्रेट अगेन’ फिलहाल दुनिया को रास आता नहीं दिख रहा है और चीन भरोसा करने योग्य नहीं है।