विडम्बना यह है कि जातिवाद के नाम पर आज वर्णव्यवस्था को कोसा जा रहा है। मनु को बार-बार धिक्कारा जा रहा है जबकि मनु का इस जातिप्रथा से कोई संबंध नहीं है। इसका भी जिम्मा हमारे तथाकथित धर्मगुरुओं का है जो थोथे द्विजाति वर्ग को प्रश्रय देते हैं और उसे वर्णव्यवस्था की देन बताते हैं।
यदि हम जातिप्रथा को देश की जीवन शक्ति के रूप में ग्रहण करते तो इतनी महान जनशक्ति आज तैयार होती जो दुनिया के किसी देश में नहीं है। भारत की सभी जातियां निपुण श्रमिक (स्किल लेबर) की श्रेणी में आती है। जरूरत थी इस निपुणता को विकसित करने की। जातिप्रथा ने देश को निपुणता दी, अनुशासन दिया, एक आचार संहिता प्रदान की, सुरक्षा की भावना प्रदान की, सेवाओं को सुव्यवस्थित रखा, उत्पादन बढ़ाए रखा,वितरण को सुचारू रूप से चलाए रखा। इतनी सुंदर व्यवस्था को हमने अपने अज्ञान एवं राजनीतिक स्वार्थ के कारण अभिशाप बना डाला। विडम्बना यह है कि आज भी हम इसको समझने को तैयार नहीं हैं।
( 1 मार्च 1995 के अंक में ‘कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नहीं, हम सब शूद्र हैं’ आलेख से)
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दरअसल इस देश की जड़ में, गांव की संरचना में वेद संस्कारगत रूप में मौजूद है। वेद में यज्ञीय वृक्षों का अलग से उल्लेख है। कर्म करने वालों को तो वेद नमन करता है। नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यो नम:। यह तो यजुर्वेद में लिखा है। शिल्पियों, खातियों, लुहारों सबको नमन वेद में है। यह नीची जाति का है, यह शूद्र है यह सब तो धर्मधारियों, पोंगापंथियों की निजी बकवास है। वेदों ने तो शूद्र को तपस्वी बोला है ‘तपसे शूद्रम’। यह वेदवाक्य है। वेद की कसौटी पर अगर कसें तो हम शूद्र कहलाने लायक भी नहीं हैं।
(कुलिश जी आत्मकथ्य पर आधारित पुस्तक ‘धाराप्रवाह’ से )