याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि आधार को न मानना वोटर लिस्ट से ‘निकाला जाना’ है और उपलब्ध दस्तावेजों की कवरेज बेहद सीमित है। उदाहरण देते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि बिहार में पासपोर्ट धारकों की संख्या केवल 1-2 प्रतिशत है और राज्य में स्थायी निवास प्रमाणपत्र का कोई प्रावधान नहीं है। अदालत ने हालांकि कहा कि 36 लाख पासपोर्ट धारकों की संख्या भी कम नहीं है और दस्तावेज सूची विभिन्न सरकारी विभागों से फीडबैक लेकर तैयार की गई है ताकि अधिकतम कवरेज सुनिश्चित हो।
अदालत ने कहा, मुद्दा ‘भरोसे की कमी’ का
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नागरिकों या गैर-नागरिकों को मतदाता सूची में शामिल या बाहर करना चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में है। अदालत ने आयोग के इस रुख का समर्थन किया कि आधार और वोटर आइडी को नागरिकता का निर्णायक प्रमाण नहीं माना जा सकता। जस्टिस जॉयमाल्या बागची ने कहा कि मामला ‘कांस्टीट्यूशनल एंटाइटलमेंट’ और ‘कांस्टीट्यूशनल राइट’ के बीच का है—अनुच्छेद 324 और 326 के दायरे का प्रश्न। अदालत ने माना कि विवाद मुख्यतः ‘भरोसे की कमी’ का है, जबकि चुनाव आयोग का कहना है कि 7.9 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 6.5 करोड़ को कोई दस्तावेज देने की आवश्यकता नहीं पड़ी।