मर्चेंट नेवी छोड़कर चुनी थी देश सेवा
1997 में विक्रम बत्रा को मर्चेंट नेवी से नौकरी का ऑफर मिला था, लेकिन उन्होंने देश सेवा का रास्ता चुना। 1996 में उन्होंने इंडियन मिलिट्री अकादमी देहरादून में दाखिला लिया और 6 दिसंबर 1997 को 13 जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त हुए। अपने मजबूत नेतृत्व और पराक्रम के चलते उन्हें जल्द ही कैप्टन बना दिया गया।
दुश्मन को धूल चटाने वाला शेरशाह
1 जून 1999 को कारगिल युद्ध में विक्रम बत्रा की टुकड़ी को भेजा गया। उन्होंने हम्प और राकी नाब जैसे दुर्गम स्थानों पर विजय प्राप्त की। इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त कराने की जिम्मेदारी भी विक्रम बत्रा को मिली। 20 जून 1999 को तड़के 3:30 बजे उन्होंने चोटी पर विजय प्राप्त कर वहां तिरंगा फहराया। विजय के बाद जब उनसे संदेश मांगा गया तो उन्होंने रेडियो पर कहा, ‘ये दिल मांगे मोर’। इसके बाद यह नारा देश में वीरता और साहस का प्रतीक बन गया। गोली लगने के बाद भी लड़ते रहे विक्रम बत्रा
चोटी नंबर 5140 के बाद भारतीय सेना ने चोटी नंबर 4875 को भी कब्जे में लेने का मिशन शुरू किया। इस अभियान का नेतृत्व भी कैप्टन विक्रम बत्रा को ही सौंपा गया। उन्होंने लेफ्टिनेंट अनुज नैय्यर के साथ मिलकर दुश्मन के 8 सैनिकों को मौत के घाट उतारा। मिशन के दौरान उनके जूनियर ऑफिसर लेफ्टिनेंट नवीन के पास विस्फोट हुआ, जिसमें उनके दोनों पैर बुरी तरह घायल हो गए। कैप्टन विक्रम बत्रा उन्हें बचाने के लिए गोलियों की बौछार के बीच नवीन को पीछे खींच रहे थे, तभी उनकी छाती पर गोली लगी। 7 जुलाई 1999 को यह शेर शहीद हो गया।
मरणोपरांत मिला परमवीर चक्र
कैप्टन विक्रम बत्रा की बहादुरी, नेतृत्व और देशभक्ति के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया। उन्होंने अपने साहस से भारतीय सेना और देश का नाम गौरवान्वित किया और उनकी कहानी हर युवा को प्रेरित करती रहेगी। उनके शब्द, ‘या तो तिरंगे को लहराकर आऊंगा या फिर तिरंगे में लिपटकर’, हमें देश के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देते हैं।