मोहन भागवत बोले- राजा का धर्म है प्रजा की रक्षा करना, अत्याचारियों को मारना
भागवत ने भारत की उस सनातन दृष्टि की ओर इशारा किया, जो अहिंसा को मूल स्वभाव मानती है, लेकिन अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ने को भी धर्म का अभिन्न अंग मानती है।
दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत ने देश के सामने मौजूद चुनौतियों और हिंदू धर्म की सही समझ पर गहरे विचार व्यक्त किए। पहलगाम आतंकी हमले में मारे गए निर्दोष लोगों की स्मृति में दो मिनट का मौन रखने के बाद, भागवत ने अपने संबोधन में न केवल भारत की सांस्कृतिक विरासत और धर्म की व्यापक व्याख्या को रेखांकित किया, बल्कि अत्याचारियों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने की जरूरत पर भी जोर दिया। उनके शब्दों में दृढ़ता और मानवता का संदेश एक साथ झलक रहा था।
कार्यक्रम में ‘हिंदू मेनिफेस्टो’ की चर्चा केंद्र में रही। भागवत ने इसे एक ऐसा प्रस्ताव बताया, जिस पर सभी की सहमति बननी चाहिए। उन्होंने कहा, “दुनिया को आज एक नए रास्ते की जरूरत है। मानवता की रक्षा और विश्व की भलाई के लिए तीसरा रास्ता भारत के पास है। यह रास्ता भारत को अपनी परंपराओं से विश्व को देना चाहिए।” भागवत ने भारत की उस सनातन दृष्टि की ओर इशारा किया, जो अहिंसा को मूल स्वभाव मानती है, लेकिन अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ने को भी धर्म का अभिन्न अंग मानती है।
भागवत ने अहिंसा को हिंदू धर्म का मूल तत्व बताते हुए कहा कि यह भारत का स्वभाव है। लेकिन उन्होंने रावण का उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि जब कोई अहिंसा के खिलाफ आचरण करता है, तो उसका दमन करना भी धर्म है। “रावण में सबकुछ था, लेकिन उसका मन अहिंसा के खिलाफ था, इसलिए भगवान ने उसका वध किया। उसी तरह, गुंडागर्दी से मार न खाना भी हमारा धर्म है। अत्याचारियों को सबक सिखाना हमारा धर्म है।” उन्होंने जोर देकर कहा कि पड़ोसियों को कष्ट देना भारत का स्वभाव नहीं है, लेकिन अगर कोई अपने धर्म का पालन नहीं करता, तो राजा का धर्म है कि वह अपनी प्रजा की रक्षा करे। “राजा को प्रजा की रक्षा के लिए जो कदम उठाने पड़ें, वे इतिहास में याद किए जाएंगे।”
धर्म को कर्मकांड तक सीमित करने की भूल
भागवत ने हिंदू समाज को धर्म की सही समझ विकसित करने की सलाह दी। उन्होंने अफसोस जताया कि आज धर्म को सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ और खान-पान की पद्धतियों तक सीमित कर दिया गया है। “हमने धर्म को पूजा घर और खान-पान से जोड़ लिया। हर किसी का रास्ता अपने लिए ठीक है, लेकिन यह नहीं होना चाहिए कि मेरा रास्ता ठीक है और बाकियों का खराब।” उन्होंने हिंदू समाज से अपील की कि वह धर्म को व्यापक दृष्टिकोण से समझे और सभी के मार्गों का सम्मान करे। भागवत का यह संदेश समावेशी और सहिष्णु समाज की नींव को और मजबूत करता है।
हिंदू समाज के लिए प्रेरणा
मोहन भागवत का यह संबोधन न केवल हिंदू समाज को अपनी जड़ों से जोड़ने का आह्वान था, बल्कि यह भी संदेश देता है कि धर्म सिर्फ व्यक्तिगत आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय जिम्मेदारी का प्रतीक है। उन्होंने अत्याचार के खिलाफ खड़े होने और प्रजा की रक्षा को राजा का सर्वोच्च कर्तव्य बताया। उनके शब्दों में एक तरफ अहिंसा और सहिष्णुता की भारतीय परंपरा की गूंज थी, तो दूसरी तरफ अन्याय के खिलाफ लड़ने का दृढ़ संकल्प। यह संबोधन न सिर्फ हिंदू समाज, बल्कि पूरे देश के लिए एक प्रेरणा है कि धर्म का सही अर्थ समझकर, हमें मानवता की रक्षा और विश्व कल्याण के लिए भारत के तीसरे रास्ते को अपनाना होगा।