कारगिल के शहीद, थार के सुरों में अमर
थार के इन पारंपरिक कलाकारों ने कारगिल के शहीदों को भी लोक गीतों में स्थान दिया है। आज भी उनके गीतों में बर्फीली चोटियों पर बलिदान देने वाले जवानों की वीरता को कमायचा, सारंगी और मोरचंग की संगत में याद किया जाता है। वे बताते हैं कि शहीद न केवल इतिहास, बल्कि लोक संस्कृति की जीवंत प्रेरणा हैं। जैसलमेर से निकले मामे खां, स्वरूप खां, साकर खां और अनवर खां जैसे कलाकारों ने विदेशों में भी भारत की लोक संस्कृति को देश भक्ति के साथ प्रस्तुत किया।
लोक संस्कृति में बसी देशभक्ति
गणतंत्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस हो या फिर कारगिल विजय दिवस…। मांगणियार और लंगा कलाकार हर अवसर पर वीर रस के गीतों के जरिए राष्ट्रप्रेम की अलख जगाते हैं। ये लोक कलाकार शहीदों की गाथाएं भी उतनी ही श्रद्धा से गाते हैं, जितनी देवी-देवताओं की।
कारगिल से जुड़ी लोक स्मृतियां भी जिंदा
कुछ कलाकारों के पास कारगिल युद्ध के समय के किस्से और गीत मौखिक रूप से सुरक्षित हैं। वे गीत व सुरों में बताते हैं कि किस तरह जवानों की रवानगी के समय गांवों में गीत गूंजते थे, और जब किसी का पार्थिव शरीर आया, तब आंसुओं की धाराएं निकलती थी।
सांस्कृतिक धरोहर को संभाले 400 परिवार
बईया, सनावड़ा, हाबुर जैसे गांवों में लगभग 400 मिरासी-मांगणियार परिवार आज भी इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। यह उनका न केवल पेशा, बल्कि श्रद्धा है—जब ये कलाकार किसी शहीद दिवस पर गीत गाते हैं, तो उनका हर सुर, हर तान, एक दीप बन जाता है उस शहादत के नाम।
एक्सपर्ट व्यू : सुरों में तपती है देशभक्ति
मिरासी समाज के अध्यक्ष सलीम मूसे खां कहते हैं— जब एक लोकगायक वीर रस का गीत गाता है, तो वह केवल प्रस्तुति नहीं देता, वह भी उस राष्ट्रभक्ति की अग्नि में तप रहा होता है। राष्ट्रीय पर्व व कारगिल विजय दिवस पर इन सुरों की अहमियत और भी बढ़ जाती है। मांगणियार-लंगा समुदाय के लोक गायक देश के सांस्कृतिक दूत हैं। उनके सुरों में इतिहास बोलता है। कारगिल विजय दिवस केवल एक सैन्य विजय की स्मृति नहीं, बल्कि राष्ट्र के प्रति उस अटूट समर्पण का प्रतीक है, जो शहीदों ने अपने लहू से रचा। जैसलमेर की माटी, इसके सुर और इसके लोक कलाकारों की प्रस्तुतियां सह साबित करती है कि जब एक रीति गायक वीर रस का गीत गाता है, तो वह भी राष्ट्रभक्ति की उसी अग्नि में तप रहा होता है।