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जगदलपुर

पीतल-कांसे की मूर्तियों से सजी बस्तर की धरोहर, विदेशों तक पहुंची कला, जानें इतिहास…

Bastar Dhokra art: बस्तर का पारंपरिक धातु शिल्प (ढोकरा कला) अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी अनोखी कलात्मकता, सांस्कृतिक विरासत और हस्तनिर्मित गुणवत्ता के चलते पहचान बना चुका है।

जगदलपुरJul 29, 2025 / 05:14 pm

Laxmi Vishwakarma

बस्तर का धातु शिल्प (Photo source- Patrika)

बस्तर का धातु शिल्प (Photo source- Patrika)

Bastar Dhokra art: छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल की पहचान सिर्फ घने जंगलों और जनजातीय जीवन से ही नहीं, बल्कि उसकी समृद्ध लोककलाओं से भी जुड़ी है। इन्हीं में से एक है धातु शिल्प कला, जिसे ढोकरा शिल्प के नाम से जाना जाता है। यह शिल्पकला हजारों वर्षों पुरानी तकनीक पर आधारित है, जिसमें पीतल और कांसे से आकर्षक मूर्तियां, देवी-देवताओं की आकृतियाँ, पशु-पक्षी, आदिवासी जीवन के दृश्य और दैनिक उपयोग की कलात्मक वस्तुएं बनाई जाती हैं। बस्तर का यह शिल्प न केवल अपनी लोक-संस्कृति की जड़ों से जुड़ा हुआ है, बल्कि आज अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी अपनी अलग पहचान बना चुका है।

क्या है बस्तर का धातु शिल्प?

छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल की पहचान उसकी अनूठी धातु कला (Dhokra Art) से है, जो न केवल भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी प्रसिद्ध है। यह कला न केवल सौंदर्यबोध की प्रतीक है, बल्कि एक सांस्कृतिक विरासत भी है जो पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित है।
बस्तर का धातु शिल्प मुख्य रूप से “ढोकरा कला” कहलाता है। यह एक प्राचीन आदिवासी तकनीक है जिसमें धातु से मूर्तियाँ, कलाकृतियाँ और सजावटी वस्तुएँ बनाई जाती हैं। इस कला में मुख्य रूप से पीतल, तांबा और कांसा का उपयोग होता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

ढोकरा शिल्प की परंपरा लगभग 4,000 वर्ष पुरानी मानी जाती है।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त “नर्तकी की मूर्ति” इसी तकनीक से बनी हुई थी।
बस्तर के गडबो, गोंड और मुरिया जनजाति इस कला के संरक्षक हैं।
Bastar Dhokra art

बस्तर धातु शिल्प का ऐतिहासिक सफर

प्राचीन जड़ें – सिंधु घाटी तक संबंध: बस्तर का धातु शिल्प ‘ढोकरा कला’ के नाम से भी जाना जाता है, जिसकी तकनीक का सबसे पुराना प्रमाण मोहनजोदड़ो से प्राप्त 4000 वर्ष पुरानी ‘नर्तकी की मूर्ति’ है। यह दर्शाता है कि यह शिल्प सिंधु घाटी सभ्यता से भी जुड़ा हुआ है।
बस्तर में विकास – जनजातीय धरोहर: छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में यह कला मुख्यतः गोंड और घड़िया जनजातियों में विकसित हुई। इन जनजातियों ने परंपरागत तरीकों से देवी-देवताओं, जानवरों, दैनिक जीवन और लोकनृत्य को दर्शाने वाली धातु मूर्तियाँ बनाईं।
‘लॉस्ट वैक्स टेक्निक’ की पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत: इस कला में पहले मोम से आकृति बनाई जाती है, फिर उस पर मिट्टी की परत चढ़ाकर उसे गर्म किया जाता है और फिर पीतल या कांसा उसमें डाला जाता है। यह पूरी प्रक्रिया पीढ़ियों से मौखिक परंपरा द्वारा सिखाई जाती रही है।
ब्रिटिश और आधुनिक काल में पहचान: ब्रिटिश काल में बस्तर की ढोकरा कला को हस्तशिल्प के रूप में मान्यता मिली। 20वीं शताब्दी में यह कला राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में दिखने लगी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराही गई।
आज का परिदृश्य: आज बस्तर के कोंडागांव, जगदलपुर और नारायणपुर जिलों में यह शिल्प जीवित है। यह न केवल सांस्कृतिक पहचान बना चुका है बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था और पर्यटन का भी अहम हिस्सा बन चुका है।
Bastar Dhokra art

निर्माण प्रक्रिया

धातु शिल्प बनाने की प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है, जिसमें निम्न चरण शामिल होते हैं:

मिट्टी और मोम से मॉडल बनाना
उस पर पीतल की पतली परत चढ़ाना
मिट्टी से ढाल बनाना और भट्टी में गर्म करना
अंत में चमकाने और सजाने की प्रक्रिया
हर कलाकृति हस्तनिर्मित होती है और दो कलाकृतियाँ कभी भी एक जैसी नहीं होतीं।

बस्तर के धातु शिल्प की 8 प्रमुख विशेषताएं

हस्तनिर्मित कला: हर मूर्ति या कलाकृति पूरी तरह से हाथ से बनाई जाती है, जिससे हर शिल्प अद्वितीय होता है।

प्राचीन परंपरा: यह कला हजारों साल पुरानी है और मोहनजोदड़ो की ‘नर्तकी’ जैसी ऐतिहासिक मूर्तियाँ भी इसी तकनीक से बनी हैं।
मिट्टी-मोम तकनीक: ‘लॉस्ट वैक्स टेक्निक’ का इस्तेमाल होता है, जिसमें पहले मोम से आकृति बनती है और फिर पीतल या तांबा पिघलाकर ढाला जाता है।

आदिवासी जीवन की झलक: मूर्तियों में बस्तर के जनजीवन, देवी-देवता, जानवर, लोकनृत्य, शिकार आदि को दिखाया जाता है।
सजावटी और धार्मिक दोनों उपयोग: ये कलाकृतियाँ पूजा के लिए भी बनाई जाती हैं और घर या ऑफिस की सजावट में भी खूब इस्तेमाल होती हैं।

स्थायित्व और मजबूती: पीतल और कांसे जैसी धातुओं से बनी यह कलाकृति वर्षों तक खराब नहीं होती।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान: यह शिल्प न केवल भारत के हस्तशिल्प मेलों में लोकप्रिय है, बल्कि विदेशों में भी इसकी भारी मांग है।

पर्यावरण अनुकूल: इसका निर्माण प्रक्रिया प्राकृतिक और स्थानीय संसाधनों पर आधारित होती है, जो इसे इको-फ्रेंडली बनाती है।
Bastar Dhokra art

बस्तर धातु शिल्प का अंतरराष्ट्रीय मंच पर गौरवपूर्ण स्थान

Bastar Dhokra art: बस्तर का पारंपरिक धातु शिल्प, जिसे ढोकरा कला के नाम से भी जाना जाता है, अब सीमित नहीं रह गया है। यह कला अपनी विशिष्ट शैली, प्राचीन तकनीक और सांस्कृतिक गहराई के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति प्राप्त कर चुकी है। हाथ से बनी इन अद्भुत मूर्तियों और सजावटी वस्तुओं की मांग न केवल भारत में बल्कि अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी लगातार बढ़ी है।
ढोकरा शिल्पकारों द्वारा बनाए गए आदिवासी जीवनदृश्य, पशु आकृतियाँ, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और अलंकरण विदेशी संग्रहालयों, कला दीर्घाओं और डिजाइन शोकेस में प्रदर्शित होती हैं। भारत सरकार और विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा आयोजित हस्तशिल्प मेलों और कला प्रदर्शनियों में भी बस्तर के शिल्पकार भाग लेते रहे हैं, जिससे उन्हें वैश्विक पहचान और आर्थिक प्रोत्साहन मिला है।
इस शिल्प की लोकप्रियता का एक कारण इसकी सस्टेनेबल और इको-फ्रेंडली प्रकृति भी है, जो आज के वैश्विक बाजार की प्राथमिकता बन गई है। कुल मिलाकर, बस्तर का यह पारंपरिक शिल्प आज भारत की सांस्कृतिक विरासत का गौरव बनकर विश्व के मंच पर चमक रहा है।

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