भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव को देखते हुए सुरक्षा एजेंसियों ने भिलाई में मॉक ड्रिल प्रारंभ कर दी थी। यह उस दौर की सबसे बड़ी नागरिक तैयारियों में से एक थी। तब शाम होते ही सायरन की आवाज़ से पूरा भिलाई अंधेरे की चादर ओढ़ लेता। बिजली गुल कर दी जाती और घरों की खिड़कियां, दरवाज़े, कांच सब पर कागज चिपका दिए जाते थे। घर के आईने तक कपड़ों से ढक दिए जाते, ताकि कोई भी रोशनी या प्रतिबिंब शत्रु विमान को लक्ष्य न बना सके।
कभी-कभी लगता मानो आकाश फट जाएगा
कुछ देर बाद आकाश में फाइटर जेट्स की गरजती आवाजें सुनाई देती थीं। कभी-कभी लगता मानो आकाश फट जाएगा। उस समय मेरे बाल मन के लिए यह कोई खेल नहीं, बल्कि भय और विस्मय से भरा अनुभव था। हमें माचिस या मोमबत्ती जलाने की सख्त मनाही थी। मां-बाबूजी सावधानीपूर्वक हर नियम का पालन करते थे और पूरे मोहल्ले में एक अदृश्य भय व्याप्त रहता था। बचपन की यह स्मृति एक ऐसा मौन युद्ध था, जो मेरे भीतर लंबे समय तक चलता रहा। तब रेडियो ही समाचार का एकमात्र माध्यम था। युद्ध की खबरें, हवाई हमलों की सूचना, और पाकिस्तान की हरकतें घर के हर सदस्य को असहज कर देती थीं। तब मैंने पहली बार महसूस किया कि शांति कितनी मूल्यवान होती है, और युद्ध केवल सैनिकों का ही नहीं, आम नागरिकों का भी होता है। खासकर उन बच्चों का जो युद्ध को नहीं समझते, परंतु उसका भय झेलते हैं।
1971 का युद्ध अब इतिहास है, किंतु मेरे लिए वह स्मृति का हिस्सा भी है। यह युद्ध मुझे सुरक्षा, अनुशासन और नागरिक जिम्मेदारी का पहला पाठ पढ़ा गया। आज ६१ वर्ष की उम्र में जब पाकिस्तान के खिलाफ
ऑपरेशन सिंदूर के तहत एयर स्ट्राइक हुई तो उन दिनों की याद ताजा हो गई। आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो पाता हूं कि एक बच्चे की आंखों से देखा गया वह भय आज देशभक्ति में तब्दील हो चुका है। (जैसा कि अजीत विलियम्स, साइंटिस्ट (फॉरेस्ट्री), बीटीसी कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर एंड रिसर्च स्टेशन, बिलासपुर ने बताया)