पुलिस जैसे अनुशासित सेवा में ऐसे अपराध के लिए कोई जगह नहीं होती, इसलिए विभागीय जांच के बाद तत्कालीन आईजी डॉ राकेश कुमार सिंह ने सख्त फैसला सुनाया, बर्खास्तगी। यह कठोर लेकिन कर्तव्यनिष्ठ निर्णय था। लेकिन वक्त बदला और समय ने एक अनोखा मोड़ लिया। तौफीक अहमद ने अपनी बर्खास्तगी को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी, और वहां उनकी पैरवी कर रही थीं अधिवक्ता अनुरा सिंह, अधिवक्ता अनुरा सिंह कोई और नहीं उन्हीं डॉ. राकेश सिंह की बेटी हैं, जिन्होंने सिपाही को बर्खास्त किया था।
बेटी ने कोर्ट में निभाया अपना धर्म
यह स्थिति किसी भी परिवार के लिए भावनात्मक रूप से कठिन हो सकती थी — एक तरफ पिता का दिया गया आदेश, दूसरी तरफ बेटी का पेशेवर कर्तव्य। मगर अदालत में कोई रिश्ता नहीं, केवल कानून होता है। अनुरा सिंह ने तर्क दिया कि विभागीय जांच में गंभीर तकनीकी खामी थी — जांच अधिकारी ने न केवल आरोप सिद्ध किए, बल्कि सीधे सजा की सिफारिश भी कर दी, जबकि यूपी पुलिस अधीनस्थ श्रेणी (दंड एवं अपील) नियमावली 1991 के नियम 14(1) के तहत यह अधिकार केवल अनुशासनात्मक प्राधिकारी का है।
एक ओर अनुशासन, दूसरी ओर न्याय की लड़ाई
हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति अजीत कुमार ने दलीलों से सहमत होते हुए कहा कि जांच प्रक्रिया नियमों के अनुरूप नहीं थी। उन्होंने विभागीय जांच रिपोर्ट और बर्खास्तगी के आदेश, दोनों को रद्द कर दिया और तौफीक अहमद को सेवा में बहाल करने का निर्देश दिया। विभाग को नई जांच के लिए तीन महीने की समय सीमा दी गई। फैसले के बाद तौफीक अहमद दोबारा वर्दी में लौट आए। लेकिन इस घटना ने एक अद्भुत उदाहरण पेश किया — जहां बाप ने कर्तव्य निभाने में कोई नरमी नहीं बरती, वहीं बेटी ने अपने पेशेवर दायित्व में रिश्तों को आड़े नहीं आने दिया।