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टहला क्षेत्र में कांकवाड़ी का प्राचीन दुर्ग देखरेख के अभाव में खो रहा आभा

मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने भाई दारा शिकोह को इस दुर्ग मेें रखा था कैद

अलवरMay 23, 2025 / 11:55 pm

Ramkaran Katariya

राजगढ़. टहला क्षेत्र के नीलकंठ-राजोरगढ़ के मध्य अरावली पर्वतमाला की पहाड़ी पर बना प्राचीन कांकवाड़ी किला प्रशासनिक उदासीनता के चलते अपनी सुन्दरता व वैभवता खोता जा रहा है। इसी सुध नहीं ली जा रही।

दुर्ग अरावली पवर्तमालाओं से घिरा हुआ हैं। बीच में एक चौसर मैदान भी है। यहीं पर छोटी सी पहाड़ी पर यह किला है। पर्वत श्रृंखलाओं से सुरक्षित होने के अलावा यह किला सघन जंगल में होने से हरियाली बनी रहती है। साथ ही इस किले के आसपास बाघ, तेन्दुएं जैसे हिंसक वन्यजीवों का विचरण भी बना रहता है। यहां के जल स्रोतों में पानी भरा रहता है। इसका निर्माण आमेर जयपुर के कच्छवाहा वंशीय पूर्व नरेश राजा सवाई जयसिंह ने कराया था। अलवर के पाउलेट गजट के अनुसार सवाई जयसिंह ने कांकवाड़ी और टहला किले का निर्माण लगभग एकसाथ करवाया था। लोगों का यह भी कहना हैं कि कांकवाड़ी का किला दिल्ली के मुगल शासकों के अधीन भी रहा। मुगल बादशाह औरंगजेब ने उत्तराधिकार के युद्ध में विजय पाने के उपरान्त अपने पराजित भाई दारा शिकोह को इस कांकवाड़ी किले में कुछ समय तक कैद रखा था। इसके बाद अलवर राज्य के संस्थापक पूर्व राजा सवाई प्रतापसिंह ने कांकवाड़ी के किले पर अधिकार स्थापित कर लिया। अलवर के पूर्व महाराजा सवाई प्रतापसिंह ने ही कांकवाड़ी के किले का जीर्णोद्धार करवाया तथा कुछ महल, बुर्ज भी बनवाए। इस दुर्ग की बारहदरी में बने अधिकांश भित्ति चित्र और बेलबूटों का अलंकरण इन्हीं के शासन काल में हुआ।
यह दुर्ग उत्कृष्टता का उदाहरणडॉ. अभिमन्यु सिद्ध एवं अन्य ग्रामीणों ने बताया कि कांकवाड़ी का दुर्ग विशिष्ट भौगोलिक स्थिति और अनूठी स्थापत्य कला के कारण विकट दुर्ग माना जाता है। इस दुर्ग में गिरी दुर्ग और वन दुर्ग दोनों की विशेषताएं विद्यमान है। राजस्थान में यह दुर्ग उत्कृष्टता का उदाहरण है। कांकवाड़ी दुर्ग तक पहुंचने का मार्ग टेढ़ा-मेढ़ा, ऊबड़-खाबड़ और पथरीला होने के कारण उस तक पहुुंचना बड़ा कठिन है। इस दुर्ग तक जाने के लिए सरिस्का-टहला मार्ग पर काली घाटी से होकर दांयीं तरफ एक रास्ता जाता है। इस रास्ते में एक दरवाजा आता है। इस दरवाजे को पार करने के बाद सरिस्का का सघन वन प्रारंभ हो जाता है। करीब 14 किलोमीटर चलने के बाद खजूर के वृक्षों, तालाब, पोखर पार करने के बाद इस दुर्ग पर पहुंचा जा सकता है। किले की एक अनूठी विशेषता यह है कि दूर से तो दिखाई पड़ता है, पर पास जाने पर पेड़ों के झुरमुट में इस तरह छिप जाता है मानो प्रकृति ने अपने आंचल में छिपा लिया हो।स्थापत्य कला देखने लायक
डॉ. अभिमन्यु सिद्ध का कहना है दुर्ग की स्थापत्य कला देखने लायक है। इसका निर्माण प्राचीन भारतीय वास्तु शास्त्र के आदर्शों के अनुरूप है। इसकी सुदृढ़ गोलाकार बुर्जे व कंगूरेदार मोटी प्राचीर दुर्ग के सुंदर वैभव की झलक प्रस्तुत करती है। किले की प्राचीर की मोटाई लगभग 8 फीट तथा लम्बाई 1 दिशा में 100 फीट तथा दूसरी ओर करीब 300 फीट के आसपास है। दुर्ग के अंदर जाने के लिए दो प्रवेशद्वार हैं। एक प्रवेशद्वार दक्षिण दिशा में बारूदखाने के पास तथा दूसरा उत्तर दिशा में सुरंगनुमा गलियारे से होकर जाता है। दरवाजे से जाने पर ऊंची प्राचीर से घिरा एक चौक आता है। इसके पास ही कुछ मजबूत कोठरियां बनी हुई हैं। इन कोठरियों के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां हैं तथा इसके पास खुले चौक में पानी का एक छोटा सा टांका बना हुआ है। उत्तर व पश्चिमी बुर्ज पर तोपे रखने का चबूतरा यथावत विद्यमान है। वर्तमान में कांकवाड़ी दुर्ग प्रशासनिक अनदेखी के कारण अपनी वैभवता खोता जा रहा है।

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