क्या है यह तकनीक?
व्लादिमीर तातारेंको ने 2016 में अपने डिटैचेबल केबिन सिस्टम का मॉडल दुनिया के सामने रखा था। इस सिस्टम में हवाई जहाज का पैसेंजर केबिन एक स्वतंत्र इकाई के रूप में डिजाइन किया गया है, जो इंजन, विंग्स और कॉकपिट से अलग हो सकता है। आपात स्थिति, जैसे इंजन फेलियर, तकनीकी खराबी या अन्य दुर्घटना के समय, यह केबिन जहाज से अलग हो जाता है। इसके बाद पैराशूट और फ्लोटिंग सिस्टम की मदद से यह धीरे-धीरे जमीन या पानी पर उतरता है, जिससे यात्रियों की जान बचाई जा सकती है।
कैसे काम करता है सिस्टम?
अलग होने की प्रक्रिया: केबिन को जहाज से अलग करने के लिए विशेष मैकेनिज्म का उपयोग किया जाता है, जो कुछ सेकंड में सक्रिय हो जाता है। पैराशूट सिस्टम: केबिन के ऊपर लगे पैराशूट स्वचालित रूप से खुलते हैं, जो इसे धीमा करते हुए सुरक्षित लैंडिंग सुनिश्चित करते हैं। फ्लोटिंग क्षमता: अगर लैंडिंग पानी में होती है, तो केबिन में लगे inflatable सिस्टम इसे डूबने से बचाते हैं। ऑक्सीजन सप्लाई: लैंडिंग तक यात्रियों के लिए ऑक्सीजन मास्क और अन्य सुरक्षा उपकरण उपलब्ध रहते हैं।
10 साल बाद क्यों चर्चा में?
हाल ही में कुछ हवाई हादसों के बाद इस तकनीक पर फिर से ध्यान गया है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर भी कई यूजर्स ने इस कॉन्सेप्ट की तारीफ की और इसे लागू करने की मांग उठाई। एक यूजर ने लिखा, “अगर यह तकनीक 10 साल पहले सुझाई गई थी, तो अब तक इसे क्यों नहीं अपनाया गया? यह लाखों जानें बचा सकती है।” वहीं, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस तकनीक को लागू करने में लागत, डिजाइन जटिलता और एयरलाइंस की अनिच्छा बड़ी बाधाएं रही हैं।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
हवाई सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यह तकनीक सैद्धांतिक रूप से प्रभावी है, लेकिन इसे व्यावसायिक उड़ानों में लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर टेस्टिंग और निवेश की जरूरत है। एक विशेषज्ञ ने बताया, “हवाई जहाज का वजन, बैलेंस और लागत इस सिस्टम को अपनाने में चुनौती पैदा करते हैं। लेकिन अगर इसे लागू कर लिया जाए, तो यह हवाई यात्रा को और सुरक्षित बना सकता है।”
एयरलाइंस का रुख
2016 में जब यह कॉन्सेप्ट सामने आया था, तब कुछ एयरलाइंस और एविएशन कंपनियों ने इस पर विचार करने की बात कही थी। हालांकि, अभी तक किसी भी प्रमुख एयरलाइन ने इस तकनीक को अपने विमानों में लागू नहीं किया है। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर सरकारें और एविएशन रेगुलेटर्स इस दिशा में कदम उठाएं, तो भविष्य में यह तकनीक हकीकत बन सकती है।