1857: जब भूप सिंह ने उठाया विद्रोह का झंडा
1857 का साल भारत के लिए एक टर्निंग पॉइंट था। जब मेरठ में सिपाहियों ने गाय और सुअर की चर्बी से बने कारतूसों के खिलाफ बगावत की, तब कोहरा के बाबू भूप सिंह ने अवध के इस हिस्से में क्रांति की मशाल जलाई। अक्टूबर 1857 में, उन्होंने चांदा (सुल्तानपुर जिला) में अंग्रेजों के खिलाफ रणभेरी बजाई। सीमित संसाधनों के बावजूद, उनकी छोटी-सी सेना ने ब्रिटिश फौज का डटकर मुकाबला किया। भूप सिंह का साहस केवल युद्ध तक सीमित नहीं था; उन्होंने लोगों में आजादी की चेतना जगाई, जो एक साधारण विद्रोह को जन-आंदोलन में बदल गया।
600 से अधिक भाले सुल्तानी योद्धाओं का रणक्षेत्र बना कादूनाला
फरवरी 1858 में, भूप सिंह ने एक बार फिर चांदा में अंग्रेजों को खदेड़ने की कोशिश की। उनकी सेना ने कर्नल रॉटन की अगुवाई वाली ब्रिटिश टुकड़ी को कड़ी टक्कर दी। लेकिन असली परीक्षा मार्च 1858 में आई, जब अमेठी के कादूनाला जंगल में एक भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में भूप सिंह ने राजा बेनी माधव सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों को रोकने की रणनीति बनाई। कादूनाला, जो मुसाफिरखाना तहसील से 5 किलोमीटर दूर लखनऊ हाईवे पर स्थित है, 600 से अधिक भाले सुल्तानी योद्धाओं का रणक्षेत्र बना।
कादूनाला का युद्ध: साहस और बलिदान की गाथा
7-9 मार्च, 1857 को कादूनाला जंगल में भूप सिंह और राजा बेनी माधव सिंह की अगुवाई में भारतीय योद्धाओं ने जनरल डायस फेयरफैक्स की ब्रिटिश सेना का सामना किया। तोपों की गड़गड़ाहट और तलवारों की चमक के बीच, भाले सुल्तानियों ने चार बार अंग्रेजों को पीछे धकेला। लेकिन, घुसपैठियों की साजिश और नेपाल के महाराजा जंगबहादुर द्वारा भेजी गई गोरखा टुकड़ी ने युद्ध का रुख पलट दिया। 9 मार्च, 1858 को जौनपुर से अतिरिक्त तोपें और सैन्य बल प्राप्त हुईं। जो कि इस युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में निर्णायक साबित हुई। अंग्रेजों ने क्रूरता की सारी हदें पार कीं। शहीद रघुवीर सिंह सहित कई सैनिकों के सिर काटकर कादूनाला के एक प्राचीन कुएं में फेंक दिए गए। यह कुआं आज भी उस दर्दनाक इतिहास का गवाह है। बंदी बनाए गए सैनिकों को जगदीशपुर और अन्य स्थानों पर फांसी दी गई। लेकिन कोहरा के योद्धाओं का साहस अंग्रेजों को लखनऊ पहुंचने से एक सप्ताह तक रोकने में सफल रहा, जो उनकी रणनीति और दृढ़ संकल्प का प्रतीक है।
आजादी की पहली सूचना
कोहरा गांव की सबसे अनूठी कहानी 15 अगस्त, 1947 की है, जब भारत की आजादी की पहली सूचना इस गांव में पहुंची। भूप सिंह के साथी महान क्रांतिकारी भदोरिया साहब ने लखनऊ से 26 घंटे पैदल चलकर कोहरा पहुंचकर यह खबर दी। उस दिन गांव में खुशी की लहर दौड़ गई।
शहीद स्मारक और कोहरा की विरासत
कादूनाला जंगल का शहीद स्मारक और प्राचीन कुआं आज भी उन वीरों की याद दिलाता है, जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर देश को आजादी की राह दिखाई। कोहरा, जो कभी बंधलगोटी राजपूतों की तालुकदारी का केंद्र था, आज भी अपने क्रांतिकारी इतिहास पर गर्व करता है। 1636 में बाबू हिम्मत सह द्वारा स्थापित इस तालुका ने 1857 में भूप सिंह के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम को नई ऊंचाइयां दीं। स्वतंत्रता के बाद, कोहरा की तालुकदारी 1947 में भारत में विलय हो गई। अंतिम तालुकदार बाबू बेनी बहादुर सिंह ने भूदान आंदोलन में जमीन दान कर सामाजिक समर्पण का उदाहरण पेश किया।