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बुजुर्ग जब मुस्कुराते हैं तो हमारे संस्कार जीवित होते हैं

अविनाश जोशी

जयपुरJun 19, 2025 / 05:59 pm

Neeru Yadav

जिन लोगों ने अपने पूरे जीवन को परिवार, समाज और राष्ट्र की सेवा में अर्पित किया, वही आज अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर अपमान, उपेक्षा और अकेलेपन का सामना कर रहे हैं। यह केवल सामाजिक विफलता नहीं, मानवीय मूल्यहीनता का प्रतीक है। भारतीय समाज, जो कभी मातृ-पितृ देवो भवः के सिद्धांत पर गर्व करता था, आज उस संस्कृति से दूर होता प्रतीत हो रहा है, जहां बुजुर्ग केवल स्मृतियों में सम्मानित और व्यवहार में उपेक्षित रह गए हैं। आधुनिक जीवनशैली, पारिवारिक ढाँचों में बदलाव और नैतिक मूल्यों के क्षरण ने वृद्धजनों की स्थिति को और अधिक दयनीय बना दिया है।
दुखद तथ्य यह है कि आधुनिकता की दौड़, भूमंडलीकरण और पारिवारिक संरचना में बदलाव के साथ-साथ बुजुर्गों की स्थिति लगातार असुरक्षित होती जा रही है। उन्हें परिवार के निर्णयों से अलग किया जाने लगा है, उनकी आवश्यकताओं की अनदेखी की जा रही है और कई बार तो उन्हें बोझ तक समझा जाने लगा है। बुजुर्ग दुर्व्यवहार कई प्रकार से सामने आता है। शारीरिक हिंसा तो सबसे प्रत्यक्ष रूप है, परंतु इसके अलावा मानसिक, भावनात्मक, मौखिक, आर्थिक, सामाजिक उपेक्षा और अनदेखी जैसे कई अप्रत्यक्ष दुर्व्यवहार भी हैं जो उतने ही पीड़ादायक होते हैं। मानसिक और भावनात्मक उपेक्षा में बुजुर्गों को बातचीत में शामिल न करना, उनके सुझावों की अवहेलना करना, उन्हें ताने मारना या अकेलेपन में जीने को मजबूर करना शामिल है। मौखिक दुर्व्यवहार के अंतर्गत अपशब्द कहना, डांटना, अपमान करना, या बार-बार उनकी निर्भरता का ताना देना आता है।
एक अन्य गंभीर स्थिति आर्थिक शोषण की है। कई बार बुजुर्गों की पेंशन, संपत्ति, बैंक खाता, या गहने उनके परिवारजन द्वारा बिना अनुमति या दबाव में लेकर हड़प लिए जाते हैं। कई बार उनके दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवा लिए जाते हैं और वे कानूनी रूप से असहाय बना दिए जाते हैं। वृद्धाश्रमों में या यहां तक कि अपने ही घरों में बुजुर्गों को दवाएं समय पर न देना, जरूरी चिकित्सकीय सुविधा से वंचित रखना भी दुर्व्यवहार की श्रेणी में आता है।
भारत जैसे देश में, जहां पारिवारिक मूल्यों को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है, वहां बुजुर्गों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घटनाएं हमारी सामूहिक चेतना पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। हेल्पेज इंडिया द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में यह सामने आया कि 60% से अधिक बुजुर्गों ने अपने जीवन में किसी न किसी प्रकार के दुर्व्यवहार का सामना किया है। सबसे चिंता की बात यह है कि इन मामलों में अधिकांशतः अपराधी उनके अपने ही परिवारजन होते हैं पुत्र, बहू, पोते, या अन्य करीबी संबंधी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि वैश्विक स्तर पर हर 6 में से 1 बुजुर्ग के साथ किसी न किसी रूप में दुर्व्यवहार होता है। परंतु यह आंकड़ा वास्तविकता से बहुत कम हो सकता है क्योंकि बुजुर्ग अधिकांशतः अपमान या डर के कारण इन घटनाओं की रिपोर्ट नहीं करते।
दुर्व्यवहार के पीछे के कारण विविध हैं – सामाजिक ढांचे में बदलाव, संयुक्त परिवार की विघटन, रोजगार की व्यस्तता, नैतिक मूल्यों में गिरावट, बुजुर्गों की आर्थिक आत्मनिर्भरता का खत्म होना, शारीरिक अक्षमता के प्रति असहिष्णुता और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति समाज की उदासीनता। विशेष रूप से तेजी से शहरीकरण और वैश्वीकरण ने युवा पीढ़ी को बुजुर्गों से अलग-थलग कर दिया है। डिजिटल युग में जहाँ संवाद तकनीकी हो गया है, वहाँ भावनात्मक जुड़ाव क्षीण होता जा रहा है। सरकार ने वरिष्ठ नागरिकों के हित में कई कानून बनाए हैं, जिनमें प्रमुख है वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम 2007। इसके अंतर्गत बुजुर्ग माता-पिता अपने संतान से भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं और कानूनी सहायता प्राप्त कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, कई राज्य सरकारों ने वृद्धाश्रम, मुफ्त चिकित्सा सेवाएं, और हेल्पलाइन जैसे उपाय किए हैं। उदाहरण के लिए, 14567 राष्ट्रीय हेल्पलाइन को बुजुर्गों की सहायता के लिए स्थापित किया गया है, जहां वे अपने अनुभव साझा कर सकते हैं और मदद पा सकते हैं।
हालांकि, कानून और संस्थान तभी प्रभावी हो सकते हैं जब समाज की चेतना जागृत हो। हमें यह समझना होगा कि बुजुर्गों का सम्मान केवल सामाजिक कर्तव्य नहीं, बल्कि नैतिक उत्तरदायित्व है। उनके साथ बिताया गया समय, उनके अनुभवों को सुनना, उनकी आवश्यकताओं की परवाह करना — ये सभी एक स्वस्थ और मानवीय समाज की पहचान हैं।
बुजुर्गों की उपेक्षा केवल उनके जीवन को ही नहीं, हमारे आने वाले समय को भी प्रभावित करती है। आज जो पीढ़ी युवावस्था में है, वह कल वृद्धावस्था में पहुंचेगी। यदि हम आज बुजुर्गों के लिए संवेदनशील नहीं हैं, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमारे लिए भी वैसी ही होंगी। यह एक सामाजिक चक्र है जिसमें मानवीय व्यवहार की बुनियादी भावना को बनाए रखना आवश्यक है।
आज जरूरत है कि हम केवल बुजुर्गों के अधिकारों के लिए आवाज़ न उठाएं, बल्कि उन्हें वह गरिमा दें जिसके वे हकदार हैं। परिवार में संवाद को बढ़ाएं, पीढ़ियों के बीच समझ का पुल बनाएं, और यदि संभव हो तो सप्ताह में कुछ घंटे केवल अपने माता-पिता या दादा-दादी के साथ बिताएं। उनकी कहानियाँ सुनें, उनके अनुभवों को आत्मसात करें, उन्हें महसूस कराएं कि वे अकेले नहीं हैं। बुजुर्ग केवल बीते कल के गवाह नहीं, वे आज के मार्गदर्शक और आने वाले कल के आधार हैं। उनके लिए सम्मान केवल शब्दों में नहीं, कर्म में प्रकट होना चाहिए। उनके जीवन की संध्या को उजास से भरना हमारा कर्तव्य है क्योंकि जब वे मुस्कुराते हैं, तो हमारे संस्कार जीवित होते हैं।

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