रफ्तार की इस दुनिया में रिश्तों में छाया सन्नाटा


हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जहां बदलाव कोई घोषणा नहीं करता। वह धीरे-धीरे आता है-आदतों की शक्ल में, प्राथमिकताओं के क्रम में, रिश्तों की भाषा में। न आवाज होती है, न कोई तय दिन-पर जब दिखता है, तब बहुत कुछ पीछे छूट चुका होता है। पिछले कुछ दशकों में शहर बड़े हुए, घर छोटे हुए, संवाद कम हुआ, और पारस्परिक दूरियां एक सामान्य अनुभव की तरह जगह घेरती गईं। यह सब एक योजना की तरह नहीं, बल्कि जीवन की गति के साथ अपने-आप घटता गया।
कभी जिन घरों में दिन भर बुजुर्गों की आवाजें, बच्चों की चहल-पहल, रसोई की महक, और आपसी बातचीत की गूंज फैली रहती थी, वहां अब ज़्यादातर वक्त सन्नाटा पसरा होता है -जिसे कभी-कभी न्यूज चैनल की लगातार चलती आवाज या मोबाइल की रिंगटोन भरती है, मगर संबंधों की आवाज़ कहीं नहीं सुनाई देती। संयुक्त परिवार अब यादों में ज्यादा हैं, और एकल परिवार एक सामान्य सामाजिक ढांचा बन चुका है। कभी एकल परिवारों की बात केवल महानगरों तक सीमित थी-अब यह फर्क मिट चुका है। छोटे शहर, कस्बे, यहां तक कि गांव तक में यह संरचना सामान्य होती जा रही है। शहर हो या गांव- युवा करियर और आत्मनिर्भरता के पीछे दौड़ लगा रहे हैं, अधेड़ उम्र के लोग स्थानीय पहचान और भूमिका की स्थिरता में उलझे हैं, वृद्ध जन अपनी उपयोगिता सिद्ध करने की चिंता में, और बच्चों का समय अब स्कूल, ट्यूशन और टीवी या मोबाईल स्क्रीन में खपता है। सब किसी न किसी मंज़िल की ओर भाग रहे हैं और इस दौड़ में पीछे छूट जाते हैं वे रिश्ते, जो कभी जीवन की सहज प्राथमिकता थे। यही खामोशी धीरे-धीरे उन घरों को भी बदल रही है, जो कभी संयुक्त परिवारों की गर्माहट से भरे रहते थे। अब साथ रहना एक औपचारिकता है, संवाद एक योजना। यह किसी वर्ग, पीढ़ी या भूगोल तक सीमित नहीं — यह समय का वह रेखाचित्र है, जो हर ज़िले, हर गली, हर घर में दोहराया जा रहा है।
रफ्तार ही इस समय की भाषा है। काम पर जाना, लौटना, अगले दिन की तैयारी करना—और इस सब के बीच न अपने लिए वक्त बचता है, न अपनों के लिए। थकावट अब सिर्फ शरीर की नहीं, मन की भी है। टेक्नोलॉजी ने जुड़ने के नए तरीके दिए, लेकिन उनके भीतर वह ऊष्मा नहीं जो कभी चिट्ठियों में, बैठकों में, या एक छत के नीचे रहने में हुआ करती थी। स्क्रीन पर सब कुछ है—हँसी, आंसू, बातें—लेकिन असल में क्या है, यह पूछने का वक्त ही नहीं बचता।
आर्थिक ज़रूरतें भी अब केवल ज़रूरत नहीं रहीं। वे जीवनशैली का आधार बन गई हैं। जितना कमाया जाए, उतना कम लगता है। खर्चे तय नहीं रहते, इच्छाएँ तय करती हैं कि कितना और चाहिए। इस असंतुलन में सबसे पहले चीज़े टूटती हैं जो नज़र नहीं आतीं—नींद, सुकून, रिश्तों की सहजता। मानसिक थकान एक सामान्य अवस्था बन चुकी है, जिसे पहचानना भी अब बहुतों के लिए असहज है।
वह समाज, जो कभी मिल-बैठकर त्योहार मनाता था, अब त्योहारी छुट्टियों में भी अलग-अलग उड़ानों में बँटा हुआ है। रीति-रिवाज़, जो कभी पीढ़ियों को जोड़ते थे, अब एक विकल्प की तरह देखे जाते हैं—ज़रूरी हों तो निभा लिए जाएँ, वरना फोटो भेज दी जाए। शादियाँ किसी परिवार की नहीं, एक इवेंट कंपनी की योजना लगती हैं। बात संस्कृति या परंपरा के पक्ष या विपक्ष की नहीं है, बात सिर्फ इतनी है कि इन सबमें जो बदलाव आया है, वह अचानक नहीं, पर व्यापक है।
इस समय की खास बात यह है कि इसमें कोई दोषी नहीं है। कोई तयशुदा जिम्मेदार नहीं, कोई एक व्यक्ति नहीं जिसने यह सब बदल दिया। यह बदलाव हम सबने मिलकर रचा है—अपने फैसलों, अपनी प्राथमिकताओं, और अपने खामोश समझौतों से। इसलिए यह किसी एक की समस्या भी नहीं है। और शायद यही इसकी सबसे कठिन बात है—कि यह हर किसी की कहानी है, लेकिन फिर भी इसे कोई अपनी समस्या नहीं मानता।
कई बार सबसे बड़ा संकट वही होता है, जो सामान्य लगने लगे। जिस अकेलेपन को हम निजी समझते हैं, वह अब सामाजिक हो गया है। जिस दूरी को हमने परिस्थितियों की मजबूरी माना, वह हमारी सामाजिक संरचना बन चुकी है। यह किसी बीते कल की कथा नहीं, न किसी आने वाले कल की भविष्यवाणी। यह बस आज की वह परत है, जो हर दिन हमारे जीवन में जुड़ रही है — खामोशी से, लगातार।
शायद यह सब देखकर कोई सवाल न उठे, कोई हल न निकले। लेकिन इतना तय है कि कुछ देर रुककर इसे देखना ज़रूरी है। क्योंकि जो दिखता नहीं, वही सबसे गहराई से बदलता है।
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