सरकारी तबके में सहरियाओं के बारे में यह आम धारणा है कि उसकी अकर्मण्यता के कारण अब तक किसी कल्याणकारी योजना का वह लाभ नहीं उठा पाया। सरकार का किया कराया ज्यादा कारगर साबित नहीं हो पाया। सहरियाओं के लिए काम करने वालों की शिकायत है कि सरकार ने जो कुछ आदिवासियों के नाम पर किया वह उन तक पहुंचा ही नहीं। धांधलेबाजी के कारण जमीनें दूसरों के ही कब्जे में चली गई। लाठी के जोर से या कानूनी पेचीदगियों के कारण या फिर रुपए के दबाव में। प्रभावी लोगों ने इनके लिए स्वीकृत हैंडपम्प अपने घरों में लगा लिए। यह पूछने पर कि शाहबाद की दोनों सहरिया बस्तियां क्यों उजड़ गई, एक सरकारी कर्मचारी ने बताया कि सहरियाओं को पक्के मकान के बजाय उनके करने लायक रोजगार की ज्यादा जरूरत है। ये लोग जंगलात का काम अच्छी तरह से कर लेते हैं।
आज का भील पटेलों से आगे निकल गया है। जो भील पेट भरने के लिए जंगलों पर निर्भर रहता था आज गेहूं, चना, चावल, मक्का गन्ना, कपास और सब्जियां पैदा कर रहा है। खुशहाली दौडक़र उसके पांव पड़ रही है, सिर पर लद रही है। अभी तो शुरुआत है। माही का पानी मिल जाने पर यह इलाका शायद गंगानगर और कोटा से भी आगे निकल जाए। बांसवाड़ा तेजी से बदल रहा है। सोये हुए आदिवासी ने करवट बदली है। अगली पीढ़ी में भील, बांसवाड़ा का भी आदिवासी नहीं रहेगा। यह एकदम नई सभ्यता में ढल जाएगा।
(16 मार्च 1976 ‘बांसवाड़ा: सभ्यता की दौड़ में आदिवासी’आलेख से)