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नए जमाने की रोशनी से लगभग अछूते आदिवासी

पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।

जयपुरAug 07, 2025 / 09:40 pm

harish Parashar

आगामी 9 अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाया जाएगा। आदिवासी का जिक्र आते ही ऐसे लोगों की तस्वीर सामने आती है जो समाज की मुख्यधारा से दूर जंगलों में निवास करते हैं। राजस्थान हो या फिर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ या देश के दूसरे आदिवासी बहुल इलाके , सब जगह ऐसा ही लगता है कि आदिवासी कल्याण के ढोल ज्यादा पीटे गए हैं। सत्तर के दशक में कुलिश जी ने अपने आलेखों में आदिवासी कल्याण के सरकारी प्रयासों की हकीकत बताई थी। प्रमुख अंश:
करीब-करीब 20 साल से सुनता आ रहा हूं कि कोटा जिले के शाहबाद इलाके के आदिवासी सहरियाओं के उत्थान के लिए क्या-क्या हो रहा है? वहां जाकर कोई भी देख सकता है कि सहरिया आज भी आदिवासियों का जीवन व्यतीत कर रहे हैं और नए जमाने की रोशनी से लगभग अछूते ही हैं। उनकी हालत देखकर लगता है कि जो कुछ उनके लिए किया गया है उसका लाभ उन्हें नहीं मिला। कुछ तो किसानों के दबदबे के कारण और कुछ सरकारी तंत्र की गड़बड़ी के कारण सहरियों के नाम पर बांटा हुआ प्रसाद और कहीं और ही पहुंच गया और वे हाथ मलते रह गए। कई सहरियों को यह नहीं मालूम कि उनके नाम पर जमीनें बांटी गई है। सहरियाओं के उत्थान में सबसे बड़ी बाधा यहां आकर बाहर से बसे हुए सम्पन्न किसानों की है। सहरिया करीब-करीब उनका गुलाम है। वे उनका कस कर शोषण करते हैं। जब-जब भूमि आवंटन अभियान शुरू हुआ इन अजगरों ने हजारों बीघा जमीन सहरियाओं के नाम से हड़प ली और जब बंदोबस्त हुआ तो अपनी खातेदारी में शामिल करा ली।
हजारों बीघा जमीन ऐसी है जो सहरियाओं के नाम से हैं लेकिन उस पर कब्जा अन्य लोगों का है। फसल भी ये ही काटते हैं। कई सहरियाओं को उन्होंने डरा-धमकाकर या मारपीट कर गांव से भगा दिया और वे डर के मारे वापस लौटकर नहीं आए। कइयों को कर्जा देकर फंसा लिया और कर्ज में उनकी जमीन हड़प ली। कइयों को वे जंगलात में या सवाईचक में जमीन तोडऩे को आगे कर देते हैं, खेती का खर्च खुद उठाते हैं और मामला-मुकदमा होने पर सहरियाओं को आगे कर देते हैं। हजारों बीघा उपजाऊ जमीन पर इन लोगों ने नाजायज कब्जे भी कर रखे हैं। जो सहरिया यहां बसते ही नहीं उनके नाम से भी जमीनें बांटी गई है। बंदोबस्त रेवेन्यू और खातेदार की असली हालत में कोई तालमेल नहीं है। इसी धांधलीबाजी के कारण जितनी मुकदमेबाजी होती है, सहरिया उसमें घाटे में रहता है। तहसील तक तो वह भाग-दौड़ कर पीछा कर लेता है लेकिन तहसील से ऊपर जाते सहरियाओं के पैर जवाब दे जाते हैं।
रोजगार की ज्यादा जरूरत
सरकारी तबके में सहरियाओं के बारे में यह आम धारणा है कि उसकी अकर्मण्यता के कारण अब तक किसी कल्याणकारी योजना का वह लाभ नहीं उठा पाया। सरकार का किया कराया ज्यादा कारगर साबित नहीं हो पाया। सहरियाओं के लिए काम करने वालों की शिकायत है कि सरकार ने जो कुछ आदिवासियों के नाम पर किया वह उन तक पहुंचा ही नहीं। धांधलेबाजी के कारण जमीनें दूसरों के ही कब्जे में चली गई। लाठी के जोर से या कानूनी पेचीदगियों के कारण या फिर रुपए के दबाव में। प्रभावी लोगों ने इनके लिए स्वीकृत हैंडपम्प अपने घरों में लगा लिए। यह पूछने पर कि शाहबाद की दोनों सहरिया बस्तियां क्यों उजड़ गई, एक सरकारी कर्मचारी ने बताया कि सहरियाओं को पक्के मकान के बजाय उनके करने लायक रोजगार की ज्यादा जरूरत है। ये लोग जंगलात का काम अच्छी तरह से कर लेते हैं।
कुलिश जी के यात्रा वृत्तांत पर आधारित पुस्तक ‘मैं देखता चला गया’ से

…इधर भीलों की बदली तकदीर
आज का भील पटेलों से आगे निकल गया है। जो भील पेट भरने के लिए जंगलों पर निर्भर रहता था आज गेहूं, चना, चावल, मक्का गन्ना, कपास और सब्जियां पैदा कर रहा है। खुशहाली दौडक़र उसके पांव पड़ रही है, सिर पर लद रही है। अभी तो शुरुआत है। माही का पानी मिल जाने पर यह इलाका शायद गंगानगर और कोटा से भी आगे निकल जाए। बांसवाड़ा तेजी से बदल रहा है। सोये हुए आदिवासी ने करवट बदली है। अगली पीढ़ी में भील, बांसवाड़ा का भी आदिवासी नहीं रहेगा। यह एकदम नई सभ्यता में ढल जाएगा।
(16 मार्च 1976 ‘बांसवाड़ा: सभ्यता की दौड़ में आदिवासी’आलेख से)

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