scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड – मातृत्व भाव ही रक्षा-सूत्र | Patrika Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 9th August 2025 Sharir Hi Brahmand The Feeling Of Motherhood Is Defense Formula | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड – मातृत्व भाव ही रक्षा-सूत्र

पुरुष पिता तो है ही, मां भी होता है। दोनों संस्थाओं का समान भाव में विकास ही व्यक्तित्व का वास्तविक संतुलन है। पुरुष भीतर सोम प्रधान है, ऋत है। यही उसकी दुर्बलता है। स्त्री भीतर आग्नेय है, सत्य है, अपने दृढ़ संकल्प से वार करती है- पुरुष ऋत पर।

जयपुरAug 09, 2025 / 08:40 am

Gulab Kothari

फोटो: पत्रिका

सभी पिण्ड अग्नि रूप हैं—चित्याग्नि रूप हैं। पिण्ड से निकलने वाला अग्नि-अमृताग्नि-चितेनिधेय है। पृथ्वी का अमृताग्नि रथन्तर साम कहलाता है। सूर्य पिण्ड पर परमेष्ठी सोम की आहुति से ही सूर्याग्नि की प्रतिष्ठा है। प्रत्येक अग्नि स्वरूप की प्रतिष्ठा सोम है। अग्नि-सोम साथ ही रहते हैं। अग्नि की प्रधानता से वस्तु सत्य रूप कहलाती है। सोम की प्रधानता से ऋत रूप। सभी पिण्ड ऋत सोम की गोद में ही पोषित होते हैं। सोम ही बीज रूप जनक है, मातृ रूप में पोषक है। पुरुष शरीर में सोम रेत रूप है, जबकि स्त्री शरीर रूप से स्वयं आहुति द्रव्य बन जाती है। सृष्टि के सभी पिण्ड सोम से ही शक्ति प्राप्त करते हैं।
अग्नि और सोम के आत्मा और शरीर भेद से दो रूप होते हैं। पुरुष का भौतिक शरीर अग्निप्रधान होता है, स्त्री-शरीर में सोम की प्रधानता होती है। अग्नि की प्रतिष्ठा दक्षिण तथा सोम की प्रतिष्ठा उत्तर दिशा है। पुरुष दक्षिणांग, स्त्री वामा है। शरीर रूप में दोनों भिन्न हैं, किन्तु आत दृष्टि से अग्नि स्त्री का आत्मा बनता है। सोम पुरुष का आत्मा बनता है। स्त्री का आत्मा शोणित में प्रतिष्ठित है, यह आग्नेय है। पुरुष का जीवनीय रस शुक्र है जो सोम प्रधान है। दोनों अविनाभूत हैं। सम्पूर्ण जगत दोनों का समन्वित स्वरूप है।
द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति शुष्कं चेवार्द्रं च।
यच्छुष्कं तदाग्नेयं, यदार्द्रं तत् सौयम्। (शत. 1.6.3.23)

सृष्टि का उपादान द्रव्य पुरुष एवं स्त्री दोनों में है- रज एवं रेत रूप से। एक आग्नेय रेत है, दूसरा सौय रेत है। रज आग्नेय होने से तेज है, रेत सौय होने से स्नेह है। दोनों में दोनों हैं। बस, प्रधानता ही स्वरूप की अभिव्यक्ति है।
मानव शरीर में स्त्री सौया है। त्रिगुणात्मक स्वरूप होता है। पुरुषाग्नि में आहुत होती है। पुरुष भी त्रिगुणात्मक होता है। अत: इन दोनों का आदान-प्रदान भी नौ रूप में हो जाता है। ब्रह्म मूल में अकर्ता होता है। स्त्री की आहुति रति रूप होती है। रति में श्रद्धा, स्नेह, वात्सल्य तथा प्रेम चारों रहते हैं। ये सब आहुति द्रव्य हो जाते हैं। वैसी ही पुरुष में शक्ति की अभिव्यक्ति होती है। प्रत्येक पुरुष भीतर सौय है, अग्नि को घेरकर रहता है। उसका पोषण करता रहता है। पुरुष सदा पत्नी में से सोम का ग्रहण करता है। जो मूल में उसके अग्नि का पोषण करता रहता है।
पुरुष का सोम भाग जनक है, भीतर की सौया पोषक है। जनक रूप में कारण शरीर या अव्यय पुरुष है, पोषक रूप सूक्ष्म शरीर-अक्षर है तथा क्षर पुरुष रूप क्षरण का कारक बनता है। क्षर पुरुष के कर्मों का आधार अक्षर पुरुष होता है। अत: जीवन की परिभाषा पुरुष की सौयता पर आधारित है। आमतौर पर इस ओर पुरुष का ध्यान कम ही जाता है। वह अपने पौरुष के ही एकांगी विकास में व्यस्त रहता है। इसमें भीतर के सोम की आहुतियों की अल्पता के कारण उसका पौरुष भाव अपूर्ण रह जाता है।
पुरुष पिता तो है ही, मां भी होता है। दोनों संस्थाओं का समान भाव में विकास ही व्यक्तित्व का वास्तविक संतुलन है। पुरुष भीतर सोम प्रधान है, ऋत है। यही उसकी दुर्बलता है। स्त्री भीतर आग्नेय है, सत्य है, अपने दृढ़ संकल्प से वार करती है- पुरुष ऋत पर। पुरुष तुरन्त आहुत हो पड़ता है। पुरुष का स्त्रैण भाव अधिकांशत: अविकसित रहता है। अत: उसकी आक्रामकता भी अल्पजीवी होती है। इसके विपरीत स्त्री का पौरुष बचपन से ही संकल्पित होता जाता है। उसके जीवन का ह्रास शिक्षा ने किया है। उसकी सौयता को आग्नेय बना दिया। आकाश की सोमवृष्टि से उसका भी पौरुष-अग्नि प्रज्वलित होता रहता है। उसे भी सोम रूपी माधुर्य की तलाश रहती है। जो भी आहुत होगा, जल जाएगा। शिक्षित स्त्री का जीवन भी मन के स्थान पर बुद्धि से संचालित होता है। बुद्धि भी उष्ण, बाहर-भीतर भी उष्ण, शरीर कोमल। तब जीवन जलकर राख क्यों न हो! उसकी पुरुषाग्नि में आहुति रौद्र रूप को निमंत्रण देना ही है। उसके ओज का आकर्षण भी जल जाएगा। मन का धरातल रीत जाएगा। स्त्रैण संस्कारों का लोप होता जाएगा। जो रूप पिता का होता है, उससे अधिक कठोरता छा जाएगी।
पुरुष भाव का भूखा नहीं होता। उसके जीवन में बीजारोपण का प्रयास अनवरत बना ही रहता है। यही उसकी मूल कामना होती है। उसके लिए अग्नि की कोई जाति- कोई वर्ण- कोई आयु नहीं होती। बस मर्यादा का बन्धन होता है। प्रकृति में न बन्धन होता है, न ही रक्त का सबन्ध। धर्म रूप मर्यादा ही उसके ऊफान को नियंत्रण में रखती है। संस्कार उसकी मर्यादा को परिभाषित करते हैं। आज जो मनुष्य में आसुरी-संपदा का जोर बढ़ता दिखाई पड़ रहा है, वह संस्कारहीनता का ही परिणाम है। प्रकृति की इस अवस्था का नाम ‘कर्मफल’ की भोग अवस्था भी कह सकते हैं। देवासुर संग्राम अथवा मन का उद्वेलन भी कह सकते हैं। प्रकृति पुन: कर्म-फलों से बांधने का प्रयास भी करती है तथा संस्कार प्रकृति से युद्ध करते भी दिखाई पड़ते हैं। गीता के अभ्यास और वैराग्य के अस्त्र-शस्त्र यहां चलते हुए दिखाई पड़ते हैं। जीव मानो द्रष्टा रूप होकर तमाशा देख रहा है।
प्रकृति का कार्य ब्रह्म के आधार पर चलता है। बीज का धारक होने से कर्मफलों का भोक्ता भी वही बनता है। स्त्री नहीं बनती। वह प्रकृति की प्रतिनिधि बनकर पुरुष को नचाती है। हर पुरुष को प्रतिदिन सैंकड़ों कर्मफलों को भोगना पड़ता है। हर क्षण प्रारब्ध विषय वस्तु को पुरुष के सामने लाता रहता है- प्राणी के रूप में। पशु-पक्षी-मनुष्य, पेड़-पौधे आदि के रूप में व्यक्ति के सामने आता है। इनका व्यक्ति से पूर्वजन्म का कोई न कोई सबन्ध रहा होता है। इन्हें देखते ही व्यक्ति के मन में कुछ न कुछ स्वाभाविक प्रतिक्रिया उठती है। आत्मा-आत्मा को पहचान रही है। भावनाओं का आदान-प्रदान शुरू होता है। जीवन के इसी द्वन्द को समझने और इससे पार निकलने के लिए पुरुष के भीतर की स्त्री का परिपक्व होना भी उतना ही आवश्यक है, जितना की बाहरी पुरुष का। दैवी सूक्त कहता है—
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

प्रत्येक प्राणी में प्रकृति का मातृत्व समाहित है। आगन्तुक विषय से कौन निकलता है, कैसे मिलता है, इसी पर पूर्व फल का भोग भी निर्भर करता है और नए कर्मों का बन्ध भी। यदि कोई स्त्री समुख आ जाए, अथवा उसके साथ कुछ अवधि तक काम करना पडे़, तब उसका पक्ष है कि प्रकृति ने उसे पूर्व कर्म के अनुसार भेजा है। आप तटस्थ भाव से उसके साथ कार्यरत बने रहें। नया कर्मों का खाता न खोलें। वह मायाभाव में होगी। जीवात्मा को बांधने का प्रयास भी करेगी। उसकी भाषा और हाव-भाव परोक्षता लिए होंगे। इस भाषा-ज्ञान के अभाव में पुरुष माया-जाल में फंसकर नए बन्धन पैदा कर लेता है। उसकी भनक तक नहीं पड़ती। चूंकि हमारी हजारों योनियों की कथाएं साथ चलती हैं (सार्वजनिक जीवन में सर्वाधिक), यह निमित्त-संघर्ष का द्वन्द्व चलता ही रहता है।
एक महिला को दूसरी महिला पहचान लेती है। इसके लिए प्रत्येक पुरुष को अपने भीतर की महिला को पटु बनाना होगा। उसे भी सत्य-संकल्पित स्वरूप देना होगा। उसे भी सामने वाले पुरुष को आवरित करना आना चाहिए। धर्म की एक मर्यादा की दीवार खड़ी करके साधारण व्यक्ति को सहारा दिया जाता है। सभी स्त्रियां ‘धर्म बहनें’ बनी रहे तो भी मर्यादा बनी रह जाती है। प्रकृति हार जाती है। 
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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