अध्ययनों के अनुसार आपदाओं के समय महिलाओं और बच्चों की मृत्यु दर पुरुषों की तुलना में लगभग 14 गुना अधिक होती है। जलवायु परिवर्तन के कारण, जो लोग अपने घरों से विस्थापित होते हैं, उनमें से लगभग अस्सी प्रतिशत महिलाएं होती हैं। यह आंकड़ा इस कठोर सच्चाई को सामने लाता है कि मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाएं महिलाओं को न तो वैकल्पिक आजीविका के पर्याप्त अवसर प्रदान करती हैं और न ही उन्हें प्रकृति आधारित अपनी पारंपरिक भूमिकाओं को निभाने की स्वतंत्रता देती हैं। 2010 में पाकिस्तान में आई भीषण बाढ़ ने इस असमानता को और स्पष्ट कर दिया, जब राहत और पुनर्वास की पूरी प्रक्रिया में महिलाओं की जरूरतें और सुरक्षा पूरी तरह उपेक्षित रह गईं। सीमित स्वतंत्रता व संसाधनों तक कठिन पहुंच ने वहां की महिलाओं को अधिक असुरक्षित बना दिया।
यही नहीं, भारत के कई भागों में हर साल आने वाली बाढ़ हजारों लोगों को विस्थापित कर देती है, लेकिन महिलाएं इस त्रासदी को अधिक कठिन रूप में झेलती हैं, विशेष रूप से खुले में शौच जैसी बुनियादी मजबूरी, जो उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और सम्मान को खतरे में डाल देती है। बाढ़ या अन्य आपदाओं के दौरान साफ पानी, साबुन, सैनिटरी पैड, कपड़े, निजी स्थान जैसी आवश्यक चीजें दुर्लभ हो जाती हैं।
इतिहास और आंकड़े भी इसी ओर संकेत करते हैं। 1991 के बांग्लादेश चक्रवात में मरने वालों में 90 प्रतिशत महिलाएं थीं। 2003 में यूरोप की गर्मी की लहर ने फ्रांस में सबसे अधिक वृद्ध महिलाओं की जान ली। अमेरिका में कैटरीना तूफान के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी महिलाएं, जो पहले से ही सबसे गरीब समुदाय से थीं – सबसे अधिक प्रभावित हुईं।
एक और अहम पहलू है पोषण। ओक्सफैम के अनुसार, किसी व्यक्ति की पोषण स्थिति यह निर्धारित करती है कि वह आपदा का सामना कितनी क्षमता से कर सकता है। FAO की रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की 45 से 60 प्रतिशत महिलाएं सामान्य वजन से कम हैं और 80 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं आयरन की कमी से ग्रस्त हैं। डंकेलमैन के अनुसार, केन्या में महिलाएं प्रतिदिन पानी लाने के लिए अपनी लगभग 85 प्रतिशत ऊर्जा खर्च करती हैं और सूखे के समय यह भार ज्यादा बढ़ जाता है।
दूसरी ओर, नयूमेयर और प्लमपर का वैश्विक विश्लेषण यह दर्शाता है कि जिन देशों में महिलाएं अधिक सशक्त हैं, वहां आपदाओं के समय मृत्युदर में लिंग आधारित अंतर अपेक्षाकृत कम होता है। पुनर्वास योजनाएं अक्सर ‘लिंग-तटस्थ’ होती हैं, जो महिलाओं की विशेष आवश्यकताओं और परिस्थितियों को अनदेखा कर देती हैं। इस प्रकार महिलाएं दोहरी मार सहती हैं — एक आपदा की और दूसरी सामाजिक ढांचों की। 2004 की सुनामी में अंडमान-निकोबार, श्रीलंका और इंडोनेशिया में पुरुषों की तुलना में मृत महिलाओं की संख्या अधिक थी। श्रीलंका में अधिक पुरुष जीवित रह पाए क्योंकि उन्हें तैरना और पेड़ पर चढ़ना सिखाया गया था, वहीं लड़कियों को ये अवसर नहीं मिलते।
भारत में हर साल औसतन 6 से 8 बड़े चक्रवात आते हैं और बाढ़ से लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित होता है। 2020 में पश्चिम बंगाल के अम्फान चक्रवात से प्रभावित 1.5 करोड़ लोगों में से महिलाओं को राहत शिविरों में स्वच्छता, निजता और सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी का सामना करना पड़ा। 2023 की बिहार बाढ़ के दौरान कई महिलाओं को प्रसव के समय प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हो सकीं। 2022 की असम बाढ़ के बाद लड़कियों के स्कूल छोड़ने की दर में 18% की वृद्धि देखी गई।
आपदा प्रबंधन को केवल तकनीकी प्रतिक्रिया के रूप में न देखकर उसे लिंग-संवेदनशील, न्यायसंगत और सहभागितापूर्ण दृष्टिकोण से समझना और लागू करना अत्यंत आवश्यक है। महिलाएं केवल राहत प्राप्त करने वाली नहीं, बल्कि नेतृत्वकर्ता और निर्णयकर्ता बनें। यह बदलाव आपदा प्रबंधन की प्रभावशीलता को गहरा करेगा तथा समाज को समावेशी व सशक्त बनाएगा।
2022 की असम बाढ़ के बाद लड़कियों के स्कूल छोडऩे की दर में 18 फीसदी की वृद्धि देखी गई और 2023 की बिहार बाढ़ के समय प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हो सकी, महिलाओं को प्रसव के दौरान।