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डिजिटल की चमकदार दुनिया अंधकारमय गुफा न बन जाए

किशोरावस्था में मस्तिष्क का विकास तीव्र गति से होता है और इस समय अगर बच्चे अश्लील सामग्री के संपर्क में आते हैं तो उनके मस्तिष्क पर विपरीत असर पड़ सकता है, जिससे व्यसन की प्रवृत्ति विकसित हो सकती है। ऐसे कंटेंट से जुड़े दृश्य आत्मसम्मान को कमजोर करते हैं, जिससे अवसाद, चिंता और आत्महत्या तक के विचार पनप सकते हैं। इसके अलावा, बच्चे यौन संबंधों के प्रति अवास्तविक अपेक्षाएं विकसित करने लगते हैं, जो असुरक्षित यौन व्यवहार को बढ़ावा दे सकती हैं। इससे रिश्तों में असंवेदनशीलता और संकोच उत्पन्न होता है, जबकि उनकी पढ़ाई और रचनात्मकता भी प्रभावित होती है।

जयपुरMay 19, 2025 / 08:54 pm

Sanjeev Mathur

– नृपेन्द्र अभिषेक नृप, स्वतंत्र लेखक एवं स्तंभकार
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब मनुष्य ने कंप्यूटर और इंटरनेट को अपने जीवन का अंग बनाया, तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन यह तकनीक मनुष्य के भीतर की नैतिकता को चुनौती देने लगेगी। आज मोबाइल स्क्रीन पर उंगलियों की हरकतें सिर्फ सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करतीं, वे समाज के नैतिक ताने-बाने को भी छिन्न-भिन्न कर रही हैं। खासकर ओटीटी और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रसारित हो रही अश्लील सामग्री बच्चों की कोमल मानसिकता पर जिस प्रकार से प्रभाव डाल रही है, वह न केवल चिंता का विषय है, बल्कि राष्ट्र के भविष्य के लिए एक गंभीर चेतावनी भी है। हाल ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय पर एक याचिका पर केंद्र सरकार और प्रमुख डिजिटल मंचों को नोटिस भेजकर देशव्यापी बहस को नया आयाम दिया है। याचिका में मांग की गई है कि केंद्र सरकार एक ऐसी राष्ट्रीय कंटेंट कंट्रोल प्राधिकरण का गठन करे, जो ओटीटी और सोशल मीडिया मंचों पर फैली अश्लीलता को नियंत्रित करने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश तय करे। उल्लेखनीय है कि इंटरनेट और डिजिटल उपकरणों की उपलब्धता ने जहां एक ओर शिक्षा, संवाद और मनोरंजन की दुनिया के द्वार खोले हैं, वहीं दूसरी ओर अश्लीलता, हिंसा और अवांछनीय विचारों के संप्रेषण का अनियंत्रित माध्यम भी बन गया है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 7.6 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि के साथ 4.72 अरब तक पहुंच चुकी है। फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर करोड़ों भारतीय नियमित रूप से सक्रिय हैं। 9-10 वर्ष के बच्चे भी आज फेसबुक पर फर्जी उम्र दिखाकर अकाउंट बना रहे हैं और ‘एडल्ट कंटेंट’ देख रहे हैं। यह स्थिति बच्चों की मानसिक, सामाजिक और शैक्षिक सेहत के लिए खतरनाक संकेत है। अश्लील कंटेंट का बच्चों पर गहरा और दूरगामी प्रभाव पड़ता है, जो उनके मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक और शैक्षिक विकास को प्रभावित करता है। किशोरावस्था में मस्तिष्क का विकास तीव्र गति से होता है और इस समय अगर बच्चे अश्लील सामग्री के संपर्क में आते हैं तो उनके मस्तिष्क पर विपरीत असर पड़ सकता है, जिससे व्यसन की प्रवृत्ति विकसित हो सकती है। ऐसे कंटेंट से जुड़े दृश्य आत्मसम्मान को कमजोर करते हैं, जिससे अवसाद, चिंता और आत्महत्या तक के विचार पनप सकते हैं। इसके अलावा, बच्चे यौन संबंधों के प्रति अवास्तविक अपेक्षाएं विकसित करने लगते हैं, जो असुरक्षित यौन व्यवहार को बढ़ावा दे सकती हैं। इससे रिश्तों में असंवेदनशीलता और संकोच उत्पन्न होता है, जबकि उनकी पढ़ाई और रचनात्मकता भी प्रभावित होती है।
अश्लील कंटेंट की रोकथाम के लिए सरकार, अभिभावक और सोशल मीडिया कंपनियों को मिलकर काम करना होगा। सरकार को अपने कानूनी ढांचे को मजबूत करना चाहिए। जैसे कि प्रस्तावित डिजिटल इंडिया बिल और डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम (डीपीडीपी), जिससे बच्चों को ऑनलाइन सामग्री तक पहुंचने के लिए अभिभावकीय सहमति अनिवार्य हो। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को बच्चों की पहुंच पर निगरानी और उम्र सत्यापन तंत्र लागू करना चाहिए, जबकि प्लेटफॉम्र्स पर अश्लील कंटेंट को पहचानने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआइ) का उपयोग किया जाए। स्कूलों में डिजिटल साक्षरता कार्यक्रमों को बढ़ावा देना और अभिभावकों को डिजिटल सुरक्षा के बारे में प्रशिक्षित करना आवश्यक है।
प्लेटफॉर्म्स को कंटेंट रेटिंग सिस्टम और इन्फ्लुएंसर्स पर उचित डिस्क्लेमर देने की जिम्मेदारी निभानी चाहिए। बच्चों द्वारा गलत उम्र दर्ज कर अश्लील कंटेंट तक पहुंच बनाना एक गंभीर समस्या है। इसे हल करने के लिए उम्र सत्यापन की उन्नत तकनीकों की आवश्यकता है। बायोमेट्रिक-मुक्त तकनीकों जैसे चेहरे की पहचान या व्यवहार विश्लेषण से बच्चों की वास्तविक उम्र का पता लगाया जा सकता है। इसके अलावा, डिवाइस-आधारित सॉफ्टवेयर समाधान और उम्र सत्यापन सेवाओं का उपयोग करके बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है। स्कूलों को बच्चों को यह समझाने की आवश्यकता है कि गलत उम्र देना न केवल नुकसानदेह है, बल्कि कानूनी रूप से भी अनुचित है। उम्र सत्यापन के साथ निजता की रक्षा करना संवेदनशील है। इसके लिए न्यूनतम डेटा संग्रह की नीति अपनाई जानी चाहिए, जिसमें केवल जन्म तिथि ली जाए और इसे तुरंत एन्क्रिप्ट किया जाए। तृतीय-पक्ष सत्यापन सेवाएं डिजिटल दस्तावेजों के आधार पर सुरक्षित तरीके से उम्र सत्यापित कर सकती हैं, जबकि उपयोगकर्ता की निजता सुरक्षित रहती है।
एआइ और मशीन लर्निंग के माध्यम से भी उम्र का अनुमान लगाया जा सकता है, जो तकनीकी रूप से निजता-सम्मत है। बच्चों और वयस्कों के लिए अलग-अलग डिजिटल नियम बनाने की आवश्यकता है। बच्चों के लिए आयु-उपयुक्त सामग्री को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जबकि वयस्कों को अपनी उम्र प्रमाणित करनी चाहिए। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर बच्चों के लिए सुरक्षित प्रोफाइल और समय-आधारित प्रतिबंध लागू किए जा सकते हैं। बच्चों के प्रोफाइल्स पर अनुचित सामग्री को स्वचालित रूप से ब्लॉक किया जाना चाहिए, जिससे डिजिटल सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। दुनियाभर में बच्चों को ऑनलाइन अश्लील व हानिकारक सामग्री से बचाने हेतु विभिन्न कानूनी व तकनीकी प्रयास हो रहे हैं।
ऑस्ट्रेलिया ने 2024 में 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया है, जिसमें उम्र सत्यापन अनिवार्य है। यूनाइटेड किंगडम ने ‘ऑनलाइन सेफ्टी अधिनियम 2023’ द्वारा सोशल मीडिया कंपनियों को जिम्मेदार बनाते हुए आयु सत्यापन और अभिभावकीय जागरूकता को प्राथमिकता दी है। अमेरिका का ‘चिल्ड्रन्स ऑनलाइन प्राइवेसी प्रोटेक्शन एक्ट’ 13 वर्ष से कम आयु के बच्चों की गोपनीयता की सुरक्षा करता है, यद्यपि ‘कम्युनिकेशन डीसेंसी एक्ट’ के कुछ प्रावधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते असंवैधानिक घोषित किए गए हैं। यूरोपीय संघ ने ‘जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन’ और ‘डिजिटल सर्विसेज एक्ट’ के जरिए बच्चों की डेटा सुरक्षा को मजबूत किया है। दक्षिण कोरिया ने ‘शटडाउन कानून’ के तहत रात में बच्चों की ऑनलाइन गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाया है, हालांकि उम्र सत्यापन की प्रक्रिया निजता पर प्रश्न उठाती है। इन प्रयासों में संतुलन अभी भी चुनौती बना हुआ है।
बच्चों को अश्लील कंटेंट से बचाना केवल सरकार, न्यायालय या तकनीक की जिम्मेदारी नहीं है। यह एक समवेत प्रयास है जिसमें अभिभावक, स्कूल, समाज, तकनीकी मंच और कानून सभी की भूमिका है। यह एक संघर्ष है- नैतिकता बनाम मनमानी का, सुरक्षा बनाम निजता का और भविष्य बनाम तात्कालिक लाभ का। यदि हम इस चुनौती को गंभीरता से नहीं लेंगे, तो डिजिटल क्रांति की यह चमकदार दुनिया हमारे बच्चों के लिए एक अंधकारमय गुफा बन जाएगी। इस तरह यह समय की मांग है कि हम एक ऐसी नीति, तकनीक और चेतना का निर्माण करें जो बच्चों को सुरक्षित, सशक्त और संस्कारी बनाए।

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