इस व्यापार घाटे की भरपाई विदेशी पूंजी निवेश प्रवाह से की जाती है, यही बचत और निवेश का असंतुलन है। यह विदेशी निवेश अक्सर कर्ज के रूप में आता है, जिससे अमेरिका का ऋण बोझ बढ़ जाता है। आज अमेरिका की सरकारी ऋण देनदारी 27 ट्रिलियन डॉलर है, जो कि उसकी जीडीपी का 125 प्रतिशत है। यदि विदेशी पूंजी निवेश में कमी आती है तो ब्याज दरें ऊंची बनी रहेंगी। डॉलर की विनिमय दर भी व्यापार घाटे को प्रभावित करने वाला एक कारक है। चूंकि दुनिया की कोई प्रमुख मुद्रा अपने को मजबूत करने के पक्ष में नहीं है, इसलिए डॉलर मजबूत रहेगा और व्यापार घाटा ऊंचा बना रहेगा। सार रूप में, अमेरिका के व्यापार भागीदारों पर कठोर शुल्क लगाने से व्यापार घाटा कम नहीं होगा, बल्कि इससे घरेलू आयात महंगे होने से अमेरिकी ग्राहक और विदेशी निर्यातक दोनों प्रभावित होंगे। नतीजतन, उत्पादन, आयात-निर्यात की मात्रा और आमदनी में गिरावट आएगी, जिससे मध्यम अवधि में अमेरिका की जीडीपी को नुकसान पहुंचेगा। ये शुल्क, विदेशी कंपनियों पर नहीं, बल्कि अमेरिकी आयातकों पर लगते हैं जो उसे उपभोक्ताओं पर मूल्यवृद्धि के रूप में डालते हैं। हालांकि राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियां इतनी तेजी से और बार-बार बदलती रहती हैं कि केवल वर्तमान नीतियों के आधार पर कोई ठोस भविष्यवाणी कर पाना बेहद कठिन है। ट्रंप की रणनीति हमेशा सामने वाले को रक्षात्मक मुद्रा में लाने की रहती है। ऐसे में यूनाइटेड किंगडम, यूरोपीय संघ या इंडोनेशिया जैसे देश उनके सामने झुक जाते हैं या फिर चीन जैसे देश दुर्लभ खनिजों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर सामरिक जवाबी हमला करते हैं। लाभकारी व्यापारिक समझौते की मंशा से शुरुआत में मैत्रीपूर्ण रवैया अपनाने के बावजूद परिणाम भारत के लिए अत्यंत निराशाजनक रहे। बहुत अधिक टैरिफ शुल्क ने भारत को अन्य देशों की तुलना में खराब स्थिति में डाल दिया है। इससे भारत की जीडीपी वृद्धि दर नीचे आ सकती है और वस्त्र, गहने, मोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो पार्ट्स, इस्पात व एल्युमिनियम के निर्यात को गहरा नुकसान पहुंच सकता है।
भारत ने तीन प्रमुख मुद्दों पर स्पष्ट रूप से अपनी सीमाएं बता दी हैं। पहला, अमेरिका के लिए कृषि और डेयरी बाजार नहीं खोला। दूसरा, जेनेटिकली मोडिफाइड कृषि उत्पादों को देश में प्रवेश की अनुमति से इनकार। तीसरा, ईंधन के रूप में प्रयुक्त एथेनॉल के आयात पर रोक। साथ ही, रूस से सस्ता तेल आयात करने की भारत की स्वतंत्रता पर अडिग रुख रखा, जो ट्रंप को सर्वाधिक नागवार गुजरा। अब अमेरिका की रणनीति के जवाब में भारत को भी गंभीरता से अपनी रणनीति ठोस, संतुलित और दीर्घकालिक दृष्टिकोण से तय करनी होगी। फिर भी, हमें कुछ चिंताजनक आर्थिक संकेतों से आंखें नहीं चुरानी चाहिए। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश ठहराव पर है। निजी क्षेत्र में निवेश सुस्त पड़ा है। कॉलेज स्नातकों में 40 प्रतिशत तक बेरोजगारी है और वे सरकारी नौकरियों के पीछे दौड़ रहे हैं। हमारी कृषि उत्पादकता वैश्विक औसत की आधी है। भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है और मुफ्त बिजली के कारण पंप लगातार चलने से जल संकट और बढ़ रहा है। उधर, लाभार्थियों को दी जाने वाली सब्सिडी का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। कौशल और शिक्षा के बीच भारी असंतुलन है। एआई और ऑटोमेशन के युग में जो चाहिए, वो हमारी शिक्षा व्यवस्था नहीं दे पा रही। सबसे अहम – भारतीय किसान अब भी सरकारी खरीद नीतियों, अप्रत्याशित प्रतिबंधों, वायदा व्यापार पर रोक और अव्यवस्थित भूमि बाजारों की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है।
कृषि कानूनों को लेकर देशव्यापी सहमति की जरूरत है। संसद में पारित श्रम सुधारों को सभी राज्यों में चार श्रम संहिताओं के माध्यम से लागू करना अनिवार्य हो गया है। शिक्षा से रोजगार तक की राह आसान करने को शिक्षा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सुधार जरूरी हैं, जिनकी बुनियाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति में है, लेकिन उसका समग्र क्रियान्वयन बाकी है। ट्रंप के शुल्कों को एक बहाना बनाकर इन सभी सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाना होगा, ताकि अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़े और सभी वर्गों को समावेशी विकास का लाभ मिल सके।