रैगिंग एक मनोवैज्ञानिक समस्या है। रैगिंग लेने वाले सीनियर छात्र अपने साथ हुआ बुरा व्यवहार जूनियर छात्रों पर दोहराना चाहते हैं। इसके साथ ही सीनियर छात्रों में अपने आपको बड़ा सिद्ध करने एवं रौब झाडऩे की प्रवृति भी होती है। जबकि रैगिंग से जूनियर छात्रों पर मनोवैज्ञानिक दबाव काम करता है और वे अपने आपको अपमानित महसूस करते हैं। ऐसे छात्र कई बार आत्महत्या भी कर लेते हैं। इस तरह यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है और इसे मनोवैज्ञानिक रूप से ही हल किए जाने की आवश्यकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि रैगिंग रोकने लिए नियम-कानूनों का पालन ही न किया जाए। ऐसी घटनाओं में आरोपी छात्रों के साथ सख्ती से निपटना चाहिए। रैगिंग के खिलाफ कड़ी कार्रवाई से जहां एक ओर सीनियर छात्रों को सबक मिलेगा वहीं जूनियर छात्रों का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। हालांकि कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि ऐसे मामलों में आरोपी छात्रों को कड़ी सजा नहीं देनी चाहिए। क्योंकि इससे आरोपी छात्रों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगने की आशंका बढ़ जाती है। युवा होने के नाते उनकी आगे की जिंदगी को कठिनाई में डालना तर्कसंगत नहीं है। दूसरा पक्ष यह है कि रैगिंग के माध्यम से जूनियर छात्रों का शारीरिक और मानसिक शोषण कर उन्हें आत्महत्या के लिए प्रेरित किया जा रहा है। सवाल यह है कि क्या बच्चों को शारीरिक और मानसिक चोट पहुंचाना और अंतत: उन्हें मौत के मुंह में धकेल देना गंभीर अपराध नहीं है? नि:संदेह यह गंभीर अपराध है और इस गंभीर अपराध की सजा भी कड़ी ही होनी चाहिए। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से सभी उच्च शिक्षण संस्थानों को यह निर्देश है कि रैगिंग की घटना के लिए संस्थान को जिम्मेदार माना जाएगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी प्रतिवर्ष विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों को पत्र भेजकर रैगिंग रोकने के निर्देश देता रहता है। हर शिक्षण संस्थान दाखिला देने से पहले छात्रों से हलफनामा भी लेता है कि रैगिंग जैसी घटना में शामिल पाए जाने पर उसका दाखिला रद्द कर दिया जाएगा। रैगिंग रोकने के लिए विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में समितियां भी बनाई जाती हैं। ऐसी घटनाएं होने पर संस्थान की मान्यता रद्द करने का प्रावधान भी है। लेकिन इन सब कोशिशों के बावजूद रैगिंग की घटनाएं रुक नहीं रही हैं। अब तो यह प्रवृत्ति स्कूलों में भी बढ़ रही है। पिछले दिनो कुछ पब्लिक स्कूलों में भी इस तरह की घटनाएं प्रकाश में आई थीं। हालांकि उच्च शिक्षण संस्थानों में रैगिंग रोकने के प्रयास होते दिखाई देते हैं लेकिन पब्लिक स्कूलों में ऐसी कोई कोशिश होती दिखाई नहीं देती हैं। कई बार संस्थान ऐसी घटनाओं को छिपाने का प्रयास करते हैं। ऐसी घटनाएं छिपाने का प्रयास ठीक उसी तरह है जैसे बीमार व्यक्ति द्वारा रोग को छिपाना। रोग को जितना छिपाया जाएगा, वह उतना ही अधिक बढ़ता जाएगा। इस रैगिंग रूपी रोग को रोकने के लिए शिक्षण संस्थानों को अपने परिसर में बेहतर माहौल बनाना होगा। उन्हें छात्रों के अंदर व्यावहारिक रूप से नैतिक मूल्य विकसित करने की कोशिश करनी होगी।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि शिक्षण संस्थान भाषणों में तो नैतिक मूल्यों की बात बहुत करते हैं लेकिन व्यावहारिक धरातल पर ऐसा कोई प्रयास होता दिखाई नहीं देता है। हमें यह समझना होगा कि रैगिंग की घटनाएं कानून के बल पर रुकने वाली नहीं हैं। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए हमें सामूहिक रूप से प्रयास करना होगा। जो बच्चे रैगिंग की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं, उनके अभिभावकों को यह जानने का प्रयास करना होगा कि उनके बच्चों के अंदर श्रेष्ठता और रौब दिखाने की भावना क्यों पनप रही है? अगर इस तरह के मामलों में अभिभावक हाथ पर हाथ रखकर बैठ गए तो यह समस्या और अधिक बढ़ेगी। कुछ वर्ष पूर्व हिमाचल प्रदेश के एक मेडिकल कॉलेज में रैगिंग के दौरान उन्नीस वर्षीय छात्र अमन काचरू की मौत हो गई थी। उस समय अमन काचरू के पिता राजेंद्र काचरू ने रैगिंग रोकने और रैगिंग पर कानून बनाने के लिए एक अभियान चलाया था। रैगिंग रूपी सामाजिक अभिशाप को रोकने लिए एक बार फिर ऐेसे ही अभियान की जरूरत है।