scriptपत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख – संस्कृत भाषा नहीं, संस्कृति | patrika group editor in chief gulab kothari special article on 11 August 2025 sanskrit bhasha nahi sanskrit | Patrika News
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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख – संस्कृत भाषा नहीं, संस्कृति

श्रावणी पूर्णिमा को संस्कृत दिवस मनाने की परम्परा भारत सरकार ने सन् 1969 में शुरू की थी। राजस्थान में इस बार यह क्रम नेता-अफसरों की अज्ञता अथवा अहंकार ने तोड़ डाला।

जयपुरAug 11, 2025 / 08:08 am

Gulab Kothari

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पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी (फोटो: पत्रिका)

गुलाब कोठारी

श्रावणी पूर्णिमा को संस्कृत दिवस मनाने की परम्परा भारत सरकार ने सन् 1969 में शुरू की थी। राजस्थान में इस बार यह क्रम नेता-अफसरों की अज्ञता अथवा अहंकार ने तोड़ डाला। अवकाश के दिन को सरकारी समारोह की भेंट कैसे चढ़ाया जा सकता है? दो दिन पूर्व ही उदयपुर में संस्कृत दिवस मनाकर औपचारिकता पूरी कर लेना संस्कृत के प्रति शासन का भाव प्रदर्शित करता है। उपेक्षा भाव की पराकाष्ठा तो यह भी है कि कई संस्कृत महाविद्यालय एक-एक शिक्षक के भरोसे चलाए जा रहे हैं। तब किसको वैदिक अनुष्ठान-उपाकर्म की पवित्रता की चिंता पड़ी है! सांस्कृतिक-धार्मिक-ऐतिहासिक महत्ता के कारण ही संस्कृत दिवस का निर्धारण हुआ था। अत: प्रश्न यही उठता है कि क्या ऐसे शीर्ष पुरुषों के हाथों में संस्कृत देववाणी का भविष्य सुरक्षित है? क्या उनको इस भाषा में कहीं दिव्यता भी दिखाई पड़ती है?
एक ओर तो हम संस्कृत भाषा के उद्धार के लिए भाषण सुनते हैं, दूसरी ओर संस्कृत की दुर्गति के मूकदर्शक बने हुए हैं। आज भी संस्कृत हजार वर्ष पुरानी भाषा के रू प में ही दिखाई पड़ती है। वर्तमान जीवन शैली में इसकी कोई भूमिका ही नहीं है। केवल नकली शोध का विषय रह गई है। नई पीढ़ी में प्रवेश ही नहीं है। डिग्रियों का ज्ञान से संबंध ही नहीं है। पेट भरने का जरिया मात्र रह गई है। संपूर्ण संस्कृत विभाग पर दृष्टिपात करें तो कितने सुसंस्कृत दिखाई देंगे। अब तो शिक्षण संस्थाओं में पूरे अध्यापक भी नहीं होते। स्थानीय मनीषियों स्व. पं. मधुसूदन ओझा, पं. गिरधर शर्मा, पं. मोतीलाल शास्त्री, पं. गोपीनाथ कविराज जैसों के कर्तृत्व की तो शिक्षण में चर्चा तक नहीं है।
संस्कृत का दुर्भाग्य ही है कि इसके विकास का दायित्व आज अंग्रेजी-दां लोगों के हाथों में है। राजनीति, ईर्ष्या-द्वेष की भेंट चढ़ गया है। शासन तंत्र को संस्कृत के ज्ञान से परिचय भी हो, यह आवश्यक नहीं है। उसके लिए तो एक विभाग मात्र है। उनको भाषा मात्र लगती है। इसमें देश की प्रज्ञा-मनीषियों की तपस्या और भविष्य का प्रकाश दिखाई नहीं देता। विश्वगुरु बनने का मार्ग एक मात्र संस्कृत में है, यह बात तो उनके गले कभी उतरेगी भी नहीं। सच पूछो तो ज्ञान का सर्वोच्च माध्यम आज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है।
भाषा न केवल हमारी भावनाओं की अभिव्यक्ति है, अपितु ज्ञान भी है। ज्ञान का वैज्ञानिक स्वरूप अन्य भाषाओं में नहीं है। शिक्षण में आज कोरी भाषा रह गई है। ज्ञान से इसका संबंध टूटता जा रहा है। सरकार का व्यवहार ही प्रमाण है। शिक्षक स्वयं ‘प्रोफेसर’ कहलवाना चाहता है ‘आचार्य’ नहीं। सभा-सम्मेलन-गोष्ठियां अंग्रेजी स्वरूप में ही आयोजित होने लगी हैं। इनमें अतिथि पदों के आधार पर आते हैं, ज्ञान के आधार पर नहीं। उनको कहां पता होता है कि संस्कृत के अक्षर सृष्टि के ‘अक्षर-पुरुष’ से समानता रखते हैं। शब्द-सृष्टि भी वाक् सृष्टि है।

सृष्टि रचना का वैज्ञानिक दस्तावेज

उनके पदों का अपना अहंकार ही इतना बड़ा होता है कि सृष्टि छोटी पड़ जाती है। सुन लो, क्या बोलते हैं! दूसरों का लिखा, स्वयं शून्य होते हैं। यही हमारे लोकतंत्र की शान भी है।
आज शिक्षा शब्दाें पर आधारित है। परा-पश्यन्ति-मध्यमा-वैखरी(चत्वारि वाक्)शिक्षा का आधार नहीं है। सारे विश्वविद्यालय ग्रंथों को दर्शन रूप में पढ़ाते हैं। दर्शन किसी एक ऋषि का मत होता है, सम्प्रदाय रूप में। आवश्यक नहीं दूसरा व्यक्ति इसे स्वीकार करे ही। अत: इतने ‘वाद’ और इतने सम्प्रदाय हो गए। ज्ञान तक पहुंचने के लिए विज्ञान को समझना पहली अनिवार्यता है। गीता में कृष्ण कहते हैं-
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत:।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ ७/2॥

अर्थात- मैं तेरे लिए इस विज्ञानसहित तत्वज्ञान को संपूर्णतया कहूंगा जिसको जानकर संसार में कुछ जानने योग्य शेष नहीं रह जाएगा।

आज किसी विश्वविद्यालय में विज्ञान भाव में आर्ष ग्रंथ नहीं पढ़ाए जाते। नकल अवश्य करते हैं अंग्रेजी से तुलना करने की। नए शब्द भी गढ़ लिए-कल्चर- संस्कृति,-सिविलाइजेशन- सभ्यता। जबकि ज्ञान संस्कृति है और कर्म सभ्यता है। हमारी सभ्यता और संस्कृति हम हैं। संस्कृति में ‘धर्मस्थापनार्थाय’ और शिक्षा में ‘धर्मनिरपेक्ष’ भाव। आज तो ज्ञान के प्रति श्रद्धा भाव भी नहीं दिखाई देता। न शासन में, न ही शिक्षण संस्थाओं में। न देश के विकास में भागीदारी की चर्चा है और न ही स्वयं व्यक्ति की। विषय रह गए, बस! संवेदना चली गई।
आज केन्द्र-प्रदेश-जनता तीनों सांस्कृतिक आचार एवं आयोजनों में विभिन्न नृत्य/गीतों का ही समायोजन करते हैं। जिनको कि स्थानीय-राष्ट्रीय स्तर पर मांगलिक माना जाता है। इन्हीं का देशों में-विदेशों में सांस्कृतिक स्तर पर आदान-प्रदान होता है। सत्ता जिसे संस्कृति मान ले, वहीं संस्कृति हो जाती है। सत्ता परिवर्तन के साथ ही संस्कृति भी बदल जाती है। इसी कारण प्रशासन भी संस्कृति को परिभाषित नहीं करता। वही नया स्वरूप तय करने लगता है। आज वही हो रहा है। हर पद की अपनी संस्कृति।
आज हमारी प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हमारे ज्ञान के प्रति विदेशों में आकर्षण पैदा हो। शोध कार्य प्रमाण सहित वैज्ञानिकों को संतुष्ट कर सकें। हमारे ग्रंथों की महत्ता को स्पष्ट कर सकें। मेहनत करने की हमारी तैयारी नहीं है। झूठे-सच्चे डिग्रियां पा लेना नौकरी दिला सकता है, देश के आत्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता। संस्कृत भाषा मात्र नहीं है, सृष्टि रचना का वैज्ञानिक दस्तावेज है। सभी ग्रंथों को वैज्ञानिकता के धरातल पर पढ़ना-पढ़ाना होगा। इसके बिना हम नई पीढ़ी तक नहीं पहुंच सकते। तकनीक-नई जीवन शैली की वैज्ञानिकता- डिजिटल रूप आदि का समावेश भी आवश्यक है। केवल कंठस्थ कराना काफी नहीं है।
वैदिक वाङ्गमय का अध्ययन समय मांगता है। छात्रों को भविष्य ही नजर नहीं आता। खर्चा कौन उठाए- कुपात्र पहले आगे आते हैं। स्पर्धा का यहां स्थान नहीं हो सकता। डिग्री का महत्व भी नहीं हो सकता। न शैक्षणिक दक्षता दिखाई पड़ती है न ही समय की चुनौती का स्वर सुनाई पड़ता है। तब क्या सार्थकता है इतने विश्वविद्यालय खोलने की। समाज के लिए नौकरी देने से आगे उपयोगी कैसे बने, इस प्रश्न का उत्तर अपेक्षित है। वर्तमान शासन व्यवस्था में तो संभव नहीं है।

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