यह नवनिर्मित ‘आर्मी रॉकेट फोर्स’ दरअसल पाकिस्तान की समस्त मिसाइल और रॉकेट प्रणालियों का एकीकृत सैन्य ढांचा होगी, जिसका संचालन न केवल पारंपरिक बल्कि संभावित रूप से परमाणु आयुधों तक भी विस्तृत हो सकता है। इसकी प्रेरणा प्रत्यक्ष रूप से चीन की ‘पीपल्स लिबरेशन आर्मी रॉकेट फोर्स’ से ग्रहण की गई है, जो बैलिस्टिक, क्रूज, और अब हाइपरसोनिक मिसाइलों के क्षेत्र में विश्व की अग्रणी सैन्य इकाई मानी जाती है। स्पष्ट है कि पाकिस्तान उसी मार्ग पर चलने को आतुर है। शायद यह सोचकर कि तकनीकी नक़ल से वह शक्ति-संतुलन में खोई हुई जमीन पुन: हासिल कर सकेगा।
अब प्रश्न यह है कि आखिर पाकिस्तान को इस विशेष सैन्य इकाई की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? उत्तर अत्यंत सीधा है — हालिया संघर्ष में पाकिस्तान की मिसाइल क्षमताएं भारतीय वायु-रक्षा प्रणाली के समक्ष नितांत निष्प्रभावी सिद्ध हुईं। भारतीय ‘एयर डिफेंस नेटवर्क’ जिसमें स्वदेशी ‘आकाश’ प्रणाली, ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल और रूसी मूल की एस-400 प्रणाली सम्मिलित हैं, ने पाकिस्तानी मिसाइलों को या तो सीमा पर ही रोक दिया या लक्ष्य तक पहुंचने से पूर्व ही उन्हें निष्क्रिय कर दिया। यह सामरिक अपमान पाकिस्तान के रक्षा रणनीतिकारों को ठोस संदेश दे गया कि केवल परमाणु हथियारों की धमकी अब पर्याप्त नहीं। यदि पारंपरिक युद्ध में टिकना है, तो एक अत्यधिक केंद्रीकृत, अनुशासित और तकनीकी रूप से सुसज्जित मिसाइल कमान की आवश्यकता है, जो हर परिस्थिति में सटीक और निर्णायक प्रतिक्रिया दे सके।
पाकिस्तान, जो अब तक अनियमित आतंकी गतिविधियों और छद्म युद्ध को अपनी नीति का मुख्य आधार बनाए रखता आया है, अब एक संगठित रॉकेट फोर्स के माध्यम से शायद यह दर्शाना चाहता है कि वह आधुनिक सैन्य रणनीति के युग में प्रवेश कर चुका है। किंतु यह आत्मप्रदर्शित परिष्कार दरअसल एक भय मिश्रित स्वीकृति है— यह स्वीकारोक्ति कि परमाणु राष्ट्र होते हुए भी यदि नियंत्रणहीन हथियार संचालन रहा तो पराजय निश्चित है। इस नई फोर्स के पीछे जिस शक्ति की स्पष्ट छाया दिखाई देती है, वह है चीन। पीएलए रॉकेट फोर्स का प्रतिरूप अपनाकर पाकिस्तान न केवल तकनीकी अनुकरण कर रहा है, बल्कि चीन की सामरिक विचारधारा का भी पोषण कर रहा है। चीन, जो भारत को क्षेत्रीय महाशक्ति बनने से रोकने के लिए लगातार प्रयासरत है, पाकिस्तान के माध्यम से दक्षिण एशिया में एक प्रकार का ‘रणनीतिक संतुलन अवरोध’ बनाए रखना चाहता है। वर्तमान समय में चीन ही इस पाकिस्तानी प्रयास का प्रबल प्रेरक और तकनीकी पोषक है। चाहे वह मिसाइल तकनीक हो, संचार-नियंत्रण तंत्र, उपग्रह-समर्थन या नेटवर्क युद्ध प्रणाली। चीन का हस्तक्षेप इस क्षेत्र को एक नए सैन्य द्वंद्व के युग में धकेल सकता है। भविष्य में तुर्की या उत्तर कोरिया जैसे देशों की संभावित भागीदारी इस जटिलता को और गहरा कर सकती है, किंतु अभी चीन ही केंद्र में है।
भारत के लिए यह परिदृश्य जितनी गहरी चुनौती बन सकता है? यह महज सैन्य दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि कूटनीतिक, सांस्कृतिक और आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से भी गंभीर है। पाकिस्तान अब सीमांत युद्ध की आशंकाओं को पुन: जन्म दे सकता है। हालांकि, पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति इस युद्धोन्मुखी रवैये का समर्थन नहीं करती। भीषण आर्थिक मंदी, विदेशी ऋणों का बोझ, बढ़ती बेरोजगारी और सामाजिक असंतोष के बीच अरबों डॉलर की लागत से उन्नत रॉकेट फोर्स की परिकल्पना वस्तुत: एक राष्ट्रीय आत्मविस्मृति है। यह स्पष्ट है कि यह सैन्य सज्जा न तो पाकिस्तान की जनता को सुरक्षा देगी और न ही विकास का मार्ग खोलेगी। बल्कि यह उनके मूलभूत अधिकारों और आवश्यकताओं का अपहरण मात्र सिद्ध होगी। इसलिए यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या पाकिस्तान इस रॉकेट फोर्स को मात्र सामरिक संतुलन के लिए उपयोग करेगा या इसके आड़ में छद्म युद्ध, आतंकवाद और सीमावर्ती अस्थिरता को फिर से बढ़ावा देने का प्रयास करेगा? भारत को इन संभावनाओं से आंखें नहीं मूंदनी चाहिए।