उल्लेखनीय है कि लड़की की सहमति से यौन संबंध होने के बावजूद, पुरुषों को कड़े पोक्सो अधिनियम के तहत दंडित किए जाने के मामलों को लेकर देश की शीर्ष अदालत में बहस चल रही है।
वरिष्ठ अधिवक्ता और न्यायमित्र इंदिरा जयसिंह ने किशोर संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए उम्र सीमा घटाकर 16 वर्ष करने का समर्थन किया। उनका मानना है कि कानून में ‘क्लोज-इन-एज एक्सेप्शन’ यानी ‘उम्र में नज़दीकी’ का प्रावधान जोड़ा जाए, जिससे 16 से 18 साल के किशोरों के बीच सहमति से बने यौन संबंधों को अपराध न माना जाए। उन्होंने कहा कि किशोरों के बीच सहमति से बने यौन संबंधों को अपराध मानना न केवल अनुचित है, बल्कि संविधान के खिलाफ भी है। जयसिंह ने अंतरराष्ट्रीय नियमों और भारत के कानूनी फैसलों का भी ज़िक्र किया, जिनसे यह साबित होता है कि फैसले लेने की क्षमता सिर्फ़ उम्र पर आधारित नहीं होती। उन्होंने ब्रिटेन के गिलिक मामले और भारत के पुट्टस्वामी मामले (गोपनीयता अधिकार से जुड़ा) का हवाला देते हुए कहा कि स्वतंत्र निर्णय लेना निजता के अधिकार का हिस्सा है और यह अधिकार किशोरों को भी होना चाहिए।
इंदिरा जयसिंह के तर्क के विरोध में केंद्र ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, “इस मानक से कोई भी विचलन, यहाँ तक कि सुधार या किशोर स्वायत्तता के नाम पर भी, बाल संरक्षण कानून में दशकों की प्रगति को पीछे धकेलने के समान होगा और पोक्सो (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण) अधिनियम, 2012 और बीएनएस (भारतीय न्याय संहिता) जैसे कानूनों के निवारक चरित्र को कमजोर करेगा।”
उल्लेखनीय है कि भारत में आपराधिक कानून 18 वर्ष से कम आयु की लड़की के साथ किसी भी यौन गतिविधि को, चाहे उसकी सहमति हो अथवा नहीं, दुष्कर्म मानता है। भारतीय दंड संहिता 1860 में सहमति की आयु 16 वर्ष निर्धारित की गई थी, परंतु यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012 के लागू होने के बाद इसे बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया। अलख आलोक श्रीवास्तव बनाम भारत संघ (2018) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बाल पीड़ितों को यौन अपराधों से बचाने और न्यायिक प्रक्रिया के दौरान उनकी भलाई सुनिश्चित करने के सर्वोपरि महत्त्व को स्वीकार किया था।
इसमें संदेह नहीं कि देशभर की अदालतों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहाँ नाबालिग लड़कियों के परिवारों द्वारा अपनी बच्चियों के यौन शोषण की शिकायत दर्ज कराई गईं, परंतु जांच पड़ताल के बाद यह सत्य सामने आया कि लड़की ने सहमति से संबंध स्थापित किए थे। यही कारण है कि भारत के 22वें विधि आयोग ने अपनी 283वीं रिपोर्ट में यौन गतिविधियों के लिए सहमति की आयु के संबंध में अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कीं, जिसका उद्देश्य नाबालिग लड़कियों की यौन स्वायत्तता के प्रश्न पर पुनर्विचार करना था।
आयोग की रिपोर्ट में सहमति की आयु के प्रश्न पर इतिहास, निर्णयों और विभिन्न अनुभवजन्य अध्ययनों पर शोधपरक एवं विस्तृत चर्चा की गई, परंतु स्पष्ट रूप से नाबालिग लड़की की भागीदारी वाले सहमति संबंधों को अपराधमुक्त करने के संबंध में कोई सिफारिश नहीं की गई। दंडात्मक कानून नाबालिग लड़कियों की सहमति को महत्वहीन बना देते हैं, भले ही संबंध सहमति से बने हों।
देशभर की अदालतों के समक्ष गंभीर संकट यह है कि एक ओर पोक्सो कानून की कठोरता है, तो दूसरी ओर भावनाओं, वास्तविकताओं और संतुलित न्याय का गंभीर प्रश्न है। न्यायालय ने नाबालिग लड़कियों द्वारा दी गई सहमति को निश्चित रूप से वैध सहमति नहीं माना है, लेकिन अब इस तथ्य का संज्ञान लेना शुरू कर दिया है कि भावनात्मक लगाव के चलते सहमति से बने संबंधों के कारण संबंधित व्यक्ति का अपराधीकरण नहीं होना चाहिए।
मद्रास हाईकोर्ट ने 2021 में विजयलक्ष्मी बनाम राज्य मामले में कहा था कि “पोक्सो अधिनियम बाल दुव्र्यवहार के पीड़ितों और उत्तरजीवियों को सुरक्षा और न्याय प्रदान करने के उद्देश्य से बनाया गया था, न कि इसे कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इस अधिनियम का उद्देश्य कभी भी नाबालिग लड़की के साथ सहमति से संबंध बनाने वाले पुरुष या किशोर लड़के को दंडित करना नहीं था।”
नाबालिगों को यौन शोषण से बचाने के लिए पक्ष और विपक्ष की तमाम दलीलों के बीच एक मध्य मार्ग निकालना बेहद कठिन है। निश्चित रूप से भावनात्मक संबंधों का शारीरिक संबंधों में परिवर्तित होना किसी भी समाज के लिए चुनौती है। किशोरावस्था में आकर्षण को प्रेम समझना और उसे संबंधों में बदलने का जुनून अंततः अवसाद, अल्प आयु में आर्थिक बोझ, गर्भपात और सामाजिक अलगाव की स्थिति उत्पन्न करता है, जो किसी भी किशोर के बेहतर भविष्य के लिए घातक है। यदि यौन संबंधों की आयु में ढिलाई दी जाती है, तो यह अप्रत्यक्ष रूप से किशोरावस्था में यौन संबंधों को बढ़ावा देगा।