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सेहत: क्लिनिकल ट्रायल प्रक्रिया पारदर्शी व जवाबदेह बनाई जाए

— अमूल्य निधि
(राष्ट्रीय संयोजक, जन स्वास्थ्य अभियान इंडिया)

जयपुरMay 07, 2025 / 12:24 pm

विकास माथुर

पिछले दो दशक के दौरान देश में अनैतिक और गैरकानूनी दवा परीक्षणों के अनेक मामले सामने आए हैं। कई शिकायतें दर्ज हुईं, कानूनी प्रक्रियाएं भी शुरू हुईं, फिर भी चिकित्सा जगत में अनैतिकता के सामने नैतिकता कमजोर पड़ती दिख रही है। भारत ने वर्ष 2005 में ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1940 में संशोधन कर वैश्विक और समवर्ती क्लिनिकल ट्रायल्स को अनुमति दे दी थी।
इस बदलाव के तहत ‘फेज लैग’ की आवश्यकता को हटा दिया गया, जिसका अर्थ था कि अब दवाओं के परीक्षण के लिए वैश्विक परीक्षणों के परिणामों का इंतजार करने की आवश्यकता नहीं थी। इससे भारत विदेशी फार्मा कंपनियों के लिए एक प्रमुख परीक्षण केंद्र बन गया। दुर्भाग्यवश, कमजोर कानून और नियामक तंत्र की मिलीभगत के चलते अनैतिक और गैरकानूनी परीक्षणों के लिए एक रास्ता खुल गया। इसकी वजह से कई लोगों की मौत हो गई और गंभीर शारीरिक दुष्प्रभाव भी हुए। उदाहरण के तौर पर, मध्यप्रदेश के इंदौर में एक सरकारी अस्पताल में छह डॉक्टरों ने 3307 लोगों पर 76 प्रकार के दवा परीक्षण किए, जिनमें 1833 बच्चे भी शामिल थे। कुछ लोगों की मृत्यु भी हो गई और कई पर गंभीर दुष्प्रभाव भी नजर आए। इन डॉक्टरों ने पांच करारों से 10 लाख रुपए कमाए।
भोपाल गैस त्रासदी से प्रभावित 215 पीडि़तों पर एक अस्पताल में ड्रग ट्रायल किए गए, जिनमें 23 लोगों की मृत्यु हुई और 22 को गंभीर दुष्प्रभाव झेलने पड़े। इन परीक्षणों से डॉक्टरों ने 90 लाख रुपए से अधिक की कमाई की। आंध्र प्रदेश और गुजरात में एचपीवी वैक्सीन स्टडी ट्रायल के दौरान 24,777 लड़कियों पर ट्रायल हुआ जिनमें 7 लड़कियों की मृत्यु हुई। इसकी पुष्टि 2013 की 72 पार्लियामेंट्री कमेटी की रिपोर्ट में की गई है। देश भर में 2005 से 2020 तक 34,390 लोगों पर ट्रायल हुए, जिनमें से 6,500 की मृत्यु हुई और 27,890 को गंभीर शारीरिक दुष्प्रभाव झेलने पड़े। इनमें से केवल 217 मृतकों के परिजनों को ही मुआवजा मिला।
हालांकि इन मामलों में शिकायतें और जांच भी हुईं, मगर आज भी पीडि़त उच्चतम न्यायालय से न्याय और मुआवजे की गुहार कर रहे हैं। फार्मा कंपनियों के दबाव में नियामक तंत्र अक्सर कार्रवाई से बचता रहा है। वर्ष 2012 में स्वास्थ्य अधिकार मंच ने उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की थी, जिसमें मल्टीनेशनल कंपनियों, ड्रग कंट्रोलर और डॉक्टरों के गठजोड़ को उजागर किया गया। इसमें यह बताया गया कि कैसे गरीबों और वंचितों को ‘गिनी पिग’ के रूप में इस्तेमाल किया गया। यह सब मेडिकल व फार्मा संस्थाओं की मिलीभगत से गुप्त रूप से हो रहा था। संसद की 59वीं समिति ने भी इस पर गंभीर टिप्पणी की थी। 2012 से 2014 के बीच न्यायालय के आदेशों के तहत मुआवजे की नीति बनी, नैतिक कमेटियों को रजिस्टर करने के नियम बने और सहमति की प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के लिए वीडियो रिकॉर्डिंग अनिवार्य की गई। फिर भी जयपुर के एक निजी अस्पताल और हाल ही अहमदाबाद के एक म्युनिसिपल अस्पताल में लगभग 500 लोगों पर बिना जानकारी दिए परीक्षण किए गए, जिनमें डॉक्टरों ने 17 से 20 करोड़ रुपए तक कमाए। कई मामलों में न तो नैतिक कमेटी थी, न ही सहमति पत्र पूर्ण रूप से भरा गया था, जो कि दवा परीक्षण प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा माना जाता है।
न्यायालय ने क्लिनिकल ट्रायल की स्वीकृति के लिए तीन समितियां गठित की हैं, जिनमें से एक का नेतृत्व स्वास्थ्य मंत्रालय के सचिव करते हैं। परीक्षण के लिए तीन शर्तें निर्धारित की गई हैं- जोखिम-लाभ विश्लेषण, नई और मौजूदा थेरेपी की तुलना और अधूरी चिकित्सा आवश्यकता। इस वर्ष की सुनवाई में उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे को दोबारा गंभीरता से लिया है और केंद्र सरकार से विस्तृत जवाब मांगा है। राज्य सरकारों की भी जिम्मेदारी है कि वे जांच और पारदर्शिता सुनिश्चित करें। 2019 में ‘न्यू ड्रग्स एंड क्लिनिकल ट्रायल्स रूल्स’ न्यायालय के आदेश और सामाजिक संगठनों की पहल पर बनाए गए। इस मुद्दे को उजागर करने में स्वास्थ्य अधिकार मंच, भोपाल गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन, राजस्थान नागरिक मंच, ड्रग ट्रायल्स पीडि़त संघ, जन स्वास्थ्य अभियान इंडिया व अन्य सामाजिक संगठन, आरटीआइ कार्यकर्ता, पत्रकार और विशेषज्ञ लगातार सक्रिय रहे हैं। कुछ जनप्रतिनिधियों ने संसद और विधानसभाओं में भी प्रश्न उठाए हैं।
वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारिख की सक्रियता, न्यायालय की संवेदनशीलता और विभिन्न आदेशों के कारण थोड़ी पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित हुई है। फिर भी हाल ही अहमदाबाद में हुए अनैतिक परीक्षण ने एक बार फिर इस समस्या की गंभीरता को उजागर कर दिया है। इस मुद्दे पर न्यायालय, मीडिया और सामाजिक संगठनों की निगरानी के बावजूद कुछ डॉक्टर, अस्पताल, ड्रग कंट्रोलर और फार्मा कंपनियां आज भी लोगों की अनभिज्ञता और मजबूरी का फायदा उठा रही हैं। इसका प्रभाव दवा अनुसंधान की विश्वसनीयता पर पड़ रहा है। बीमारियों से बचाने के लिए नई दवाओं का निर्माण जरूरी है और इनका परीक्षण भी, लेकिन इसके लिए जो भी प्रक्रिया अपनाई जाए, वह पूरी तरह से वैध होनी चाहिए। लोगों की मजबूरी और अज्ञानता का फायदा नहीं उठाया जाना चाहिए। लोगों की जान से खिलवाड़ करना अपराध है। ऐसे मामले में कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। इसलिए सभी अनैतिक दवा परीक्षण मामलों में कानूनी करवाई और दोषियों की सजा के साथ ही साथ पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की मांग को लेकर स्वास्थ्य अधिकार मंच और अन्य समूह संघर्षरत हैं।

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