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हर गर्भवती को चाहिए स्वच्छ हवा का अधिकार

नृपेन्द्र अभिषेक नृप

जयपुरJun 29, 2025 / 05:37 pm

Neeru Yadav

विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य ने जो मूल्य चुकाया है, उनमें वायु की शुद्धता सबसे दुर्लभ बन चुकी है। महानगरों में सांस लेना मात्र एक जीवित प्रक्रिया नहीं, बल्कि धीरे-धीरे मृत्यु के निकट ले जाती एक दैनिक व्यथा बन गया है। सबसे अधिक चिंताजनक तथ्य यह है कि इस प्रदूषित हवा का प्रभाव अब केवल जीवित व्यक्तियों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि माँ के गर्भ में पल रहे अजन्मे शिशुओं तक इसकी पहुंच हो चुकी है। विज्ञान और चिकित्सा की अनेक शोधों ने यह प्रमाणित किया है कि गर्भस्थ शिशु वायु प्रदूषण के सूक्ष्म कणों से प्रभावित हो रहे हैं, जो उनके शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास को स्थायी रूप से विकृत कर सकते हैं। ‘एयर इन द वॉम्ब’ कोई कल्पना नहीं, बल्कि एक भयावह यथार्थ है, जो भारत जैसे विकासशील और अत्यधिक जनसंख्या वाले देशों में मातृ स्वास्थ्य संकट को और भी गहरा करता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट के अनुसार, विश्व भर में प्रतिवर्ष लगभग 70 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण असमय मृत्यु का शिकार होते हैं, जिनमें बच्चों और गर्भवती महिलाओं की संख्या भी चिंताजनक है। 2023 की डब्ल्यूएचओ रिपोर्ट यह भी दर्शाती है कि विकासशील देशों में, विशेष रूप से दक्षिण एशिया और उप-सहारा अफ्रीका में, शहरी वायु प्रदूषण का स्तर डब्ल्यूएचओ के मानकों से चार से पाँच गुना अधिक है। भारत इस संकट का केंद्रबिंदु बन चुका है, जहां राजधानी दिल्ली सहित अनेक महानगरों में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआइ) प्रतिदिन ‘गंभीर’ की श्रेणी में होता है।
वैज्ञानिक शोध यह स्पष्ट करते हैं कि जब गर्भवती महिला प्रदूषित हवा में सांस लेती है, तब पीएम 2.5 और पीएम 10 जैसे सूक्ष्म कण उसके फेफड़ों से रक्त प्रवाह में घुल जाते हैं और प्लेसेंटा के माध्यम से भ्रूण तक पहुँच सकते हैं। यह प्रक्रिया न केवल भ्रूण के सामान्य विकास में बाधा उत्पन्न करती है, बल्कि भ्रूण की प्रतिरक्षा प्रणाली, स्नायु प्रणाली, और यहां तक कि डीएनए संरचना पर भी दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकती है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल द्वारा 2022 में किए गए एक संयुक्त अध्ययन में यह पाया गया कि अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्रों में जन्म लेने वाले बच्चों में न्यून वजन, समय से पूर्व जन्म और मानसिक विकारों की संभावना सामान्य बच्चों की तुलना में दोगुनी होती है। यही नहीं, वायु प्रदूषण से प्रभावित गर्भस्थ शिशुओं में बाद के जीवन में अस्थमा, हृदय रोग, टाइप-2 डायबिटीज़ और यहां तक कि कैंसर जैसी गंभीर बीमारियाँ विकसित होने की संभावना भी बढ़ जाती है।
भारत में स्थिति अत्यंत गंभीर है। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की लगभग 80 प्रतिशत शहरी गर्भवती महिलाएं ऐसे वातावरण में साँस ले रही हैं जहाँ वायु गुणवत्ता डब्ल्यूएओ मानकों से काफी नीचे है। विशेष रूप से दिल्ली, कानपुर, वाराणसी, पटना, ग्वालियर, लखनऊ, और कोलकाता जैसे शहरों में वायु की गुणवत्ता गर्भस्थ शिशु के विकास के लिए अत्यंत विषैली सिद्ध हो रही है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट (सीएसई) की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में प्रतिवर्ष लगभग 30,000 नवजात शिशु ऐसे होते हैं जो समय से पूर्व जन्म लेते हैं या जन्म के समय उनका वजन सामान्य से कम होता है, और इनमें से अधिकांश मामलों में वायु प्रदूषण एक प्रमुख कारक होता है।
मातृ स्वास्थ्य पर पडऩे वाले प्रभावों की बात करें तो, प्रदूषित वायु गर्भवती महिलाओं में उच्च रक्तचाप, गर्भावधि मधुमेह, और प्री-एक्लेम्पसिया जैसी स्थितियों को जन्म देती है। यह भी देखा गया है कि वायु प्रदूषण गर्भावस्था के दौरान महिला की मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करता है, जिससे अवसाद और चिंता की प्रवृत्ति बढ़ती है, जो स्वयं भ्रूण के न्यूरो-कॉग्निटिव विकास के लिए हानिकारक सिद्ध होता है। इस संदर्भ में एम्स, नई दिल्ली द्वारा 2023 में की गई एक स्टडी उल्लेखनीय है जिसमें यह प्रमाणित हुआ कि अत्यधिक वायु प्रदूषण के संपर्क में रहने वाली महिलाओं में गर्भपात की दर 34त्न तक अधिक होती है।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि वायु प्रदूषण और सामाजिक-आर्थिक असमानता के बीच एक गहरा संबंध है। जिन वर्गों की आय कम है, जो झुग्गी-झोपडय़िों या औद्योगिक क्षेत्रों के निकट रहते हैं, उन्हें दूषित वायु का सर्वाधिक सामना करना पड़ता है। दुर्भाग्यवश, इन्हीं क्षेत्रों में मातृत्व स्वास्थ्य सुविधाएँ भी सबसे कमजोर हैं। यह दोहरा आघात माताओं और उनके बच्चों को एक अदृश्य चक्रव्यूह में धकेल देता है, जहाँ न तो उन्हें सुरक्षित सांस मिलती है, और न ही चिकित्सा सुरक्षा।
शोध यह भी बताते हैं कि वायु प्रदूषण का गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। टोरंटो विश्वविद्यालय की 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, गर्भावस्था के पहले तीन महीनों में वायु प्रदूषण के संपर्क में आने वाली महिलाओं के बच्चों में न्यूरो-डेवलपमेंटल विकारों जैसे एडीएचडी (अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर)और ऑटिज़्म की संभावना 35त्न तक बढ़ जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि यह समस्या केवल जन्म के समय के जोखिम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरी जीवन प्रक्रिया को प्रभावित करती है।
इस संदर्भ में भारतीय नीति प्रणाली की उदासीनता भी विचारणीय है। भले ही ‘राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम’ (एनसीएपी) 2019 में प्रारंभ हुआ था, जिसका लक्ष्य 2024 तक 122 शहरों में पीएम 2.5 स्तर को 20-30त्न तक घटाना था, परंतु जमीनी हकीकत इससे भिन्न है। 2024 के अंत तक अधिकांश शहरों में वायु गुणवत्ता में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं देखा गया, और सरकार की स्वास्थ्य नीति में गर्भवती महिलाओं और वायु प्रदूषण के संबंध को प्राथमिकता नहीं दी गई। मातृ-शिशु स्वास्थ्य योजनाएं जैसे जननी सुरक्षा योजना, या प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, वायु प्रदूषण से जुड़ी समस्याओं को अभी भी प्रत्यक्ष रूप से संबोधित नहीं करतीं।
शहरी भारत में एक और गंभीर समस्या यह है कि प्रदूषण के स्रोतों का घनत्व अत्यधिक है। वाहन उत्सर्जन, निर्माण स्थलों से उठती धूल, कोयले आधारित बिजली संयंत्र, उद्योगों से निकलता धुआँ, ये सभी स्रोत मिलकर शहरों को ‘गैस चैंबर’ में परिवर्तित कर चुके हैं। इन स्थितियों में रहने वाली गर्भवती महिलाओं के लिए, सुरक्षित मां बनना एक विलासिता बन चुका है।
हाल में लैंसेट द्वारा प्रकाशित एक विश्लेषणात्मक रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि भारत में जन्म लेने वाले प्रत्येक पांचवे बच्चे का जन्म वजन मानक से कम होता है और इनमें से आधे मामले ऐसे हैं जो वायु प्रदूषण से जुड़े होते हैं। इस रिपोर्ट ने यह भी उजागर किया कि दिल्ली जैसे शहरों में रहने वाली महिलाओं के गर्भ में औसतन प्रति मिमी प्लेसेंटा में 20 से अधिक ब्लैक कार्बन कण पाए गए हैं, जो सामान्य से 5 गुना अधिक है।
इन वैज्ञानिक तथ्यों और सामाजिक यथार्थों के बीच हमें एक प्रश्न लगातार झकझोरता है कि क्या हमारे शिशु, हमारे भविष्य, वायु में जन्म लेने से पूर्व ही प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं? यह प्रश्न केवल पर्यावरणविदों या चिकित्सकों के लिए नहीं है, यह प्रत्येक नागरिक, प्रत्येक नीति-निर्माता और प्रत्येक माँ-बाप के लिए है। जब हम मातृत्व को पूजनीय मानते हैं, तो उस मातृत्व को ऐसी हवा सौंपना जो गर्भ में विष घोलती हो, न केवल वैज्ञानिक विफलता है, बल्कि नैतिक पतन का भी संकेत है।
समाधान की दिशा में पहला कदम यह होना चाहिए कि मातृ और शिशु स्वास्थ्य योजनाओं में वायु प्रदूषण की रोकथाम को समावेशित किया जाए। प्रत्येक गर्भवती महिला को न केवल पौष्टिक आहार और टीकाकरण मिले, बल्कि उसे शुद्ध हवा भी मिले, यह अब एक वैधानिक अधिकार बनना चाहिए। नीति आयोग और स्वास्थ्य मंत्रालय को मिलकर ऐसे क्षेत्रों की पहचान करनी चाहिए जहां प्रदूषण का स्तर अत्यधिक है और वहाँ गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष ‘एयर क्लीन ज़ोन’ बनाए जाएं।
इसके अतिरिक्त, निजी स्वास्थ्य संस्थानों और प्राइवेट हॉस्पिटल्स को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि गर्भवती महिलाओं को ऐसी सलाह दी जाए जो उन्हें प्रदूषण के खतरे से बचा सके। एन 95 मास्क का उपयोग, इनडोर एयर प्यूरीफायर की उपलब्धता, सुबह के समय टहलने के बजाय दिन में कम प्रदूषित समय को चुनना, और पौधों से युक्त हरित गृह निर्माण, ये सभी ऐसे छोटे कदम हैं जो गर्भस्थ शिशु के लिए बड़ी सुरक्षा बन सकते हैं।
शिक्षा के स्तर पर भी हमें जागरूकता अभियान चलाने होंगे। गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को पर्यावरणीय स्वास्थ्य से जोडऩा, और सरकारी व निजी प्रसारण माध्यमों में प्रदूषण-संबंधी स्वास्थ्य चेतावनियाँ- ये सभी उपाय अब टालने योग्य नहीं हैं। इस प्रश्न को केवल वैज्ञानिक चिंता या पर्यावरणीय विमर्श की सीमाओं से बाहर निकाल कर हमें इसे मानवाधिकार के रूप में देखना होगा। एक शिशु को शुद्ध वायु में जन्म लेने का अधिकार उतना ही मौलिक है जितना जीवन का अधिकार। वायु प्रदूषण के विरुद्ध लड़ाई अब केवल पर्यावरण संरक्षण की लड़ाई नहीं, यह गर्भ में पलते जीवन के अस्तित्व की लड़ाई है।और जब अगली बार कोई मां अपने शिशु के पहले स्पंदन को महसूस करे, तो वह यह विश्वास कर सके कि वह स्पंदन किसी ज़हरीली हवा के डर में नहीं, बल्कि एक सुरक्षित भविष्य की ओर अग्रसर हो रहा है।

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