राजस्थान में भारत आदिवासी पार्टी (बीएपी) के विधायक के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा रंगे हाथ पकड़े जाने का मामला तो रिश्वतखोरी और ब्लैकमेलिंग का शर्मनाक उदाहरण है। आरोप है कि विधानसभा में खान विभाग से जुड़े सवालों को वापस लेने के लिए विधायक जयकृष्ण पटेल ने खनन कारोबारी से दस करोड़ रुपए की मांग की थी। हमारी विधायिकाओं यानी संसद और विधानसभाओं में प्रश्नकाल की व्यवस्था इस मकसद से की गई है ताकि जनता से जुड़े मुद्दे उठाए जा सकें और जिम्मेदारों की जवाबदेही भी सुनिश्चित की जा सके।
जनप्रतिनिधि विधायिकाओं में न केवल देश का भविष्य तय करते हैं बल्कि जनसाधारण आकांक्षाओं के अनुरूप सरकारों को फैसले लेने को बाध्य भी करते हैं। प्रश्नकाल इसका सबसे बड़ा माध्यम रहता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विधायिकाओं में उठाए जाने वाले सवालों से न केवल भ्रष्टाचार के बड़े मामलों का खुलासा हुआ है बल्कि सरकारों को अपनी रीति-नीतियों में भी बदलाव करना पड़ा है। साथ ही सरकार में बैठे मंत्रियों की अपने विभागों पर पकड़ की जानकारी भी उनके जवाबों के माध्यम से जनता को मिलती रही है। विपक्ष के पास तो प्रश्नकाल ही सरकार को घेरने का सबसे बड़ा हथियार बनता रहा है। लेकिन इसी हथियार को ब्लैकमेलिंग कर अपनी स्वार्थपूर्ति का माध्यम बना लिया जाए तो चिंता होना स्वाभाविक है।
राजस्थान का यह कोई अकेला मामला नहीं है। इससे पहले वर्ष 2005 में तो ग्यारह सांसदों को सवाल पूछने के बदले पैसे लेने के आरोप पर संसद सदस्यता से हाथ धोना पड़ा था। हैरत की बात यह है कि ये सांसद किसी एक ही पार्टी के नहीं थे। पिछली लोकसभा में भी पैसे लेकर सवाल पूछने के मामले में लोकसभा की एथिक्स कमेटी की सिफारिश पर टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा की सदस्यता रद्द कर दी गई थी।
विधायिकाओं में सवाल पूछकर प्रश्नकाल के दौरान अनुपस्थित रहना, पूछे गए सवाल को वापस लेने जैसे मामलों में हो सकता है कोई दूसरे कारण भी हों लेकिन ऐसा होते वक्त भी माननीयों के आचरण पर सवाल उठता ही है। हमारी विधायिकाओं में आचरण समितियां भी बनी हैं, जो ऐसे मामलों में दिशा-निर्देश जारी करती हैं। लोकतंत्र की गरिमा को तार-तार करने वाली ऐसी घटनाओं पर अंकुश सख्ती और पारदर्शी जांच प्रक्रिया के बिना संभव नहीं है।