1952 में मुंबई में जन्मे वाल्मीक थापर की रगों में ज्ञान, सृजन और असहमति की चेतना बहती थी। उनके पिता रोमेश थापर स्वतंत्र भारत के पहले विचारशील पत्रकारों में थे, मां राज थापर साहित्य और सामाजिक आंदोलनों से जुड़ी थीं और चाची रोमिला थापर एक महान इतिहासकार हैं। परंपरा से वामपंथी विचारधारा में विश्वास रखनेवाले परिवार में वाल्मीक ने अपने लिए एक अलग रास्ता चुना- जंगल का रास्ता, जिसमें उन्होंने सिर्फ पेड़-पौधों और जानवरों को नहीं देखा, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की आत्मा को समझा।
रणथंभौर में मिली दिशा और दर्शन उनकी जिंदगी की दिशा 1976 में तय हुई, जब वह राजस्थान के रणथंभौर में फतेह सिंह राठौर से मिले- वही ख्यात वन अधिकारी, जिनके संरक्षण प्रयासों ने रणथंभौर को विश्व प्रसिद्ध बनाया। यहीं से थापर का बाघों के साथ रिश्ता बना, जो जीवनपर्यंत चलता रहा। राठौर और थापर ने एक अथक साझेदारी बनाई जिसने चार दशकों में बाघों के संरक्षण प्रयासों और नीतियों को प्रेरित किया। थापर सरकारों के प्रिय नहीं थे। वह स्पष्ट बोलते थे। एक बार उन्होंने कहा था, ‘ब्यूरोक्रेसी ने बाघों को गोलियों से ज्यादा मारा है।’
बाघ केवल प्रजाति नहीं, भारत की पहचान अपने अंतिम दिनों तक थापर संरक्षण कार्य में शामिल रहे, विशेष रूप से टाइगरवॉच के माध्यम से, जो सवाई माधोपुर में राठौड़ द्वारा स्थापित एक गैर-लाभकारी संस्था है। थापर ने सरकार के कई शीर्ष संस्थाओं में काम किया, जिसमें राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड भी शामिल है। वह राजस्थान के सरिस्का से बाघों के गायब होने के बाद सुधारों को सुझाने के लिए गठित टाइगर टास्क फोर्स के सदस्य भी थे। उनका मानना था कि बाघ केवल एक प्रजाति नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता की पहचान हैं।
थापर ने 24 से ज्यादा किताबें लिखीं थापर ने 24 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें ‘टाइगर द सेक्रेट ऑफ लाइफ’, ‘टाइगर फायर’, ‘द लास्ट टाइगर ऑफ इंडिया. जैसी रचनाएं शामिल हैं। उनके लेखन में तथ्य भी थे और भावना भी। यह दुर्लभ मेल उन्हें एक खास बनाता था। उनकी बीबीसी डॉक्युमेंट्री ‘लैंड ऑफ द टाइगर’ (1997) ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत के वन्यजीवों का जीवंत परिचय कराया। उनकी फिल्मों में सिर्फ बाघ ही नहीं, बल्कि वन्यजीवों और मानव के जटिल संबंधों की झलक मिलती थी।
सिर्फ बाघों के लिए नहीं, गांव वालों के लिए भी 1987 में थापर ने रणथंभौर फाउंडेशन की स्थापना की। इसका उद्देश्य था- बाघों के साथ-साथ मनुष्यों की भी रक्षा करना। वह मानते थे कि संरक्षण तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक स्थानीय समुदायों को उसमें हिस्सेदार न बनाया जाए। उन्होंने दस्तकार संस्था के साथ मिलकर विस्थापित लोगों के लिए रोजगार, हस्तशिल्प और सम्मानजनक जीवन के अवसर तैयार किए।
छोड़ गए अमिट विरासत वाल्मीक थापर का जाना सिर्फ एक व्यक्ति का जाना नहीं है, वह एक सोच थी-जो बाघों को आंकड़ों में नहीं, धरोहरों में गिनती थी। वह एक सेतु थे- वैज्ञानिक अध्ययन और जन चेतना के बीच, सरकारी नीति और जमीनी हकीकत के बीच। आज जब भारत में बाघों की संख्या कुछ हद तक स्थिर हुई है तो उसमें थापर जैसे लोगों की मेहनत का बड़ा हिस्सा है।