जिले में 37 फीसदी आदिवासी वर्ग का दबदबा
छिंदवाड़ा और पांढुर्ना जिले की 23.76 लाख आबादी में आदिवासी वर्ग करीब नौ लाख की संख्या में मौजूद हैं। कुछ वर्ग सरकारी नौकरियों में है, तो बड़ा वर्ग मजदूरी कर जीवन यापन कर रहा है। आदिवासी संस्कृति जिलेवासियों को कहीं न कहीं प्रभावित करती रही है। इनके भोजन, वस्त्र, आभूषण, मूल जीवन को जीने के संसाधन की झांकी बादलभोई म्युजियम में देखी जा सकती है।
बीपी, शुगर, मोटापा कम करने में सहायक
बीपी, शुगर, मोटापा एवं हृदय रोगियों के लिए ये मिलेट्स वरदान हैं। जिले में कोदो, कुटकी, रागी, कंगनी सहित ज्वार की खेती लगभग 15 हजार हेक्टेयर में होती है, जिससे तैयार व्यंजन एफपीओ के माध्यम से जिले ही नहीं बल्कि प्रदेश एवं देश के अन्य राज्यों तक भी विक्रय किए जा रहे हैं।
आदिवासियों के भोजन हर किसी की पसंद
आदिवासियों के भोजन मक्का की रोटी, टमाटर की चटनी, ज्वार की रोटी, बैगन भर्ता, कुटकी चावल, मिलेट्स के चीले डोसा, रागी सूप, मक्का की भेल, कुटकी की खीर, महुआ की पूड़ी, मक्का का खूद, महेरी एवं बाजरे की खिचड़ी आदि देशी व्यंजन पर्यटकों की पसंद है। चिरौंजी की बर्फी, स्ट्रॉबेरी, शहद, कच्ची घानी का तेल, गुड़ का पावडर एवं कोदो, कुटकी का चावल में रुचि ली जा रही है।
आदिवासी अंचल में है सेहतमंद अनाज
जिले में 37 फीसदी आबादी आदिवासी है। छिंदवाड़ा से लेकर तामिया, जुन्नारदेव, बिछुआ, अमरवाड़ा, हर्रई, परासिया और पांढुर्ना में निवासरत ये लोग सदियों से कोदो कुटकी, जगनी समेत अन्य अनाज और सब्जियां बिना रासायनिक खाद के उत्पन्न कर रहे हैं। इससे उनकी सेहत दूसरे वर्ग की तुलना में बेहतर रही है। एक अनुमान के अनुसार में जिले में प्राकृतिक और जैविक खेती का गैर सरकारी आंकड़ा 45 हजार हेक्टेयर है।