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बीकानेर

रिपोर्ट ने कहा लड़की, घर ने कहा… खत्म कर दो…तकनीक बढ़ी, पर सोच कहां रुकी… भ्रूण हत्या पर जिंदा है बड़ा सवाल

आंकड़े बताते हैं कि हम भले ही 21वीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं, लेकिन सोच अब भी 19वीं सदी में अटकी है। कानून हैं, योजनाएं हैं, लेकिन अगर नहीं है तो वह है बेटियों को बराबरी की नजर से देखने की मानसिकता।

बीकानेरJul 25, 2025 / 11:58 am

Brijesh Singh

वे जन्म लेने से पहले ही मार दी जाती हैं। कभी परिवार की इज्जत के नाम पर। कभी बेटे की चाह में और कभी इसलिए कि “बेटी पालना मुश्किल होता है।” समाज ने जब से कोख में लिंग पहचानने की तकनीक पाई है, बेटियों के लिए यह दुनिया और भी असुरक्षित हो गई है। 25 जुलाई, विश्व भ्रूण संरक्षण दिवस, उन तमाम अनसुनी चीखों की याद दिलाने का दिन है, जो मां की कोख में ही हमेशा के लिए खामोश कर दी गईं। आंकड़े बताते हैं कि हम भले ही 21वीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं, लेकिन सोच अब भी 19वीं सदी में अटकी है। कानून हैं, योजनाएं हैं, लेकिन अगर नहीं है तो वह है बेटियों को बराबरी की नजर से देखने की मानसिकता। जानकारी के मुताबिक 3500 सोनोग्राफी मशीनें राजस्थान में पंजीकृत हैं। गर्भपात के आंकड़ों में भी एक बड़ा हिस्सा संदिग्ध है। विशेषज्ञों का मानना है कि इनमें से हजारों मामले लिंग परीक्षण कराए जाने और कन्या भ्रूण हत्या से जुड़े हो सकते हैं

सच्ची कहानी: जब ‘लड़की’ बताने पर गर्भपात का दबाव डाला

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गंगाशहर की एक महिला की पहली संतान बेटी थी। दूसरी बार गर्भवती हुई तो ससुराल वालों ने उसे हरियाणा के जींद ले जाकर गैरकानूनी तरीके से भ्रूण का लिंग परीक्षण कराया। रिपोर्ट में लड़की बताई गई। इसके बाद उस पर गर्भपात का दबाव बनाया गया। लेकिन महिला नहीं मानी और बीकानेर लौट आई। जब पीसीपीएनडीटी टीम ने संपर्क किया, तो उसने सारी जानकारी दी। जिला प्रशासन ने महिला के पति को सख्त चेतावनी दी। प्रसव हुआ, तो बेटा हुआ। यह घटना साफ बताती है कि कन्या भ्रूण हत्या अब भी सामाजिक दबाव और पिछड़ी मानसिकता का परिणाम है।

भ्रूण हत्या के पीछे क्या हैं वजहें
सुरक्षा का डर: लोगों को लगता है कि लड़कियों को पालना मुश्किल है, उनकी सुरक्षा चुनौती है। लिंग आधारित भेदभाव के तहत लड़कों को अब भी वारिस माना जाता है, जबकि लड़कियों को बोझ। शिक्षा की कमी और ग़रीबी खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में खासतौर पर यह सोच गहराई से मौजूद है। पुरानी मानसिकता आज भी कायम है। दहेज, विवाह की जिम्मेदारी आदि को वजह मानकर कन्या को जन्म से पहले ही खत्म कर दिया जाता है।

तकनीकी का दुरुपयोग और लूपहोल्स
सोनोग्राफी मशीनें पीसीपीएनडीटी एक्ट के तहत पंजीकृत होनी चाहिए, लेकिन एमआरआई जैसे उपकरणों के मुकाबले इन पर निगरानी कमजोर है। मोबाइल सोनोग्राफी और गैरपंजीकृत क्लीनिक अब भी चोरी-छिपे लिंग परीक्षण कर रहे हैं। भ्रूण जांच के सैंपल विदेश तक भेजे जा रहे हैं। कुल मिला कर एक्ट लागू है, लेकिन स्थानीय स्तर पर निगरानी ढीली पड़ जाती है।
क्या कहता है पीसीपीएनडीटी कानून

भ्रूण के लिंग की जांच पर पूरी तरह से प्रतिबंध दोषी पाए जाने पर 5 साल तक की सजा और जुर्माना। दोषी पाए जाने पर 5 साल तक की सजा और जुर्माना। 2003 में इसमें संशोधन कर कानून और सख्त किया गया। 1994 से अब तक सिर्फ 145 डॉक्टरों के लाइसेंस रद्द हुए हैं, जबकि देशभर में लाखों सोनोग्राफी केंद्र मौजूद हैं। इससे साफ है कि कानून का पालन सख्ती से नहीं हो पा रहा।

समाधान की जरूरत कहां है
स्कूलों में लिंग-संवेदनशील शिक्षा शुरू करना। पीसीपीएनडीटी एक्ट का सख्ती से पालन। ग्रामीण क्षेत्रों में जनजागरण और शिक्षा का प्रसार। एनजीओ को जोड़ा जाए, जो जमीनी स्तर पर काम कर सकें। भामाशाह मॉडल: टीबी मरीजों की तरह हर गर्भवती महिला को भी सामाजिक सुरक्षा और पोषण सहायता मिलनी चाहिए।

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